________________
: १२ :
गुरुतत्त्व-विनिश्चय
१ महोपाध्याय श्री यशोविजयजी विरचित
उपाध्याय श्री यशोविजयजी विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के प्रखर विद्वान् थे। आपने छोटे बड़े १०८ न्याय के ग्रन्थ बनाये, तब काशी के विद्वानों ने आपको "न्यायाचार्य" का पद दिया था। आप नैयायिक होने के अतिरिक्त कवि और जैन सिद्धान्त के अच्छे ज्ञाता भी थे। "वैराग्य कल्पलता" जो "सिद्धर्षि" की :'उपमित भव प्रपंचा" कथा का पद्य रूप है, आपके प्रौढ़ कवित्व का प्रमाण देती है। “यतिलक्षणसमुच्चय" आदि अापके अनेक ग्रन्थ आपको जैन-सिद्धान्तज्ञ के रूप में प्रमाणित करते हैं। इस प्रकार के सैद्धान्तिक ग्रन्थों में आपकी गुरुत्वविनिश्चय' नामक कृति सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित है।
"गुरुतत्व विनिश्चय" ग्रन्थ की रचना प्राकृत गाथाओं में की गई हैं, जिनकी गाथा संख्या ६०५ है। इस बृहद् ग्रन्थ पर आपने एक टीका भी बनाई है, जिसका श्लोक प्रमाण ८००० के लगभग होगा। इस ग्रन्थ को आपने चार 'उल्लासों' में विभक्त किया है। प्रत्येक उल्लास में क्याक्या विषय है, जिसका आभास नीचे की पंक्तियों से हो सकेगा
१. प्रथम उल्लास में निश्चय और व्यवहार की दृष्टि से गुरुत्तत्व का निरूपण २०८ गाथाओं में किया है।
२. द्वितीय उल्लास में उपाध्यायजी ने ''व्यवहार, बृहत्कल्प, निशीथ, महानिशीथ, जीतकल्प" आदि छेद सूत्रों के आधार से श्रमण-श्रमणियों को दिये जाने वाले प्रायश्चितों का संग्रह और उनके देने का व्यवहार भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org