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निबन्ध-निचय
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जो आपत्तिजनक है। पाठकजी को यहाँ “षोडशस्य शतस्य" के स्थान "सप्तदश शतस्य" ऐसा लिखना चाहिए था, जिससे यथार्थ अर्थ उपस्थित हो जाता। “षोडश'' यह शब्द पूर्ण प्रत्यान्त है, इसलिए इसके साथ "चतुत्रिंश" शब्द जोड़ने से सोलह सौ चौत्रीस के स्थान पन्द्रह सौ चौत्रीस ऐसा अर्थ होगा, १६३४ नहीं। इसी प्रकार जहाँ-जहाँ संवत्सर दिखाने का प्रसंग आया, वहाँ सभी जगह “षोडशस्य शतस्य' यही शब्द प्रयोग किया है, जो पाठकजी के अनाभोग का परिणाम ही कहा जा सकता है।
पाठक श्रीवल्लभ कवि ने अपनी इस कृति का निर्माण समय नहीं दिया। इससे निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि "विजयदेवमाहात्म्य" निर्माण का समय क्या है, परन्तु कवि के अन्तिम सर्ग के कई श्लोकों से यह ध्वनित अवश्य होता है, कि पाठकजी ने इस ग्रन्थ का निर्मागा श्री विजयदेव सूरिजी की विद्यमान अवस्था में ही नहीं, किन्तु इनकी जीवनी के पूर्व-भाग में ही इस ग्रन्थ का निर्माण हो चुका होगा। विजयदेव सूरिजी अठारहवीं सदी के प्रथम चरण तक विद्यमान थे। तब श्रीवल्लभ ने अपने इस ग्रन्थ में अठारहवीं सदी का एक भी प्रसंग नहीं लिखा। इससे निश्चित है कि सत्रहवीं सदी के चतुर्थ चरण में ही इस ग्रन्थ की समाप्ति हो चुकी थी। मुद्रित "विजयदेव-माहात्म्य' को आधार भूत प्रति के अन्त में लेखक की पुष्पिका निम्न प्रकार की मिलती है
"लिखितोऽयं ग्रन्थः श्री ५ श्रीरंगसोमगरिण-शिष्य-मुनिसोमगरिगना । सं० १७०६ वर्षे चैत्रमासे कृष्णपक्षे एकादशी तिथौ बुधौ (धे) लिखितं । श्री राजनगरे तपागच्छाधिराज भ० श्री विजयदेवसूरीश्वरविजयराज्ये ।'
ऊपर की पुष्पिका से इतना निश्चित हो जाता है. कि सं० १७०६ के वर्ष तक विजयदेव सूरि तपागच्छ के गच्छपति के रूप में विद्यमान थे। तब "विजयदेव-माहात्म्य'' इसके पूर्व लगभग बीस से पच्चीस वर्ष पहले बन चुका था और इससे यह भी जान लेना चाहिए, कि "विजयदेवमाहात्म्य' में प्राचार्य श्री विजयदेव सूरि का पूरा जीवन चरित्र नहीं है।
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