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निबन्ध-निचय
'वासकुमार ' की दीक्षा के साथ भगवान् महावीर के इस विहार का क्या सम्बन्ध और साम्य, यह बात पाठक श्रीवल्लभ ही समझ सकते हैं ।
आचार्य श्री
श्रीवल्लभ पाठक ने 'विजयदेव - माहात्म्य" में कोई दस-बारह स्थान पर वर्षं सूचक शब्द प्रयोग किए हैं । वे सब के सब भ्रान्तिकारक हैं । वे प्रत्येक संवत्सर निवेदन के अवसर पर 'सोलहवें शतक के प्रमुक वर्ष में' इस प्रकार का शब्द प्रयोग किया है, जो ठीक नहीं । विजयदेव सूरि सोलहवें शतक के व्यक्ति नहीं किन्तु सत्रहवीं सदी के थे अतः सोलहवें के स्थान पर सर्वत्र सत्रहवें ऐसा शब्द प्रयोग करना चाहिए था । आपके काल-सूचक शब्द प्रयोगों के एक दो उदाहरण नीचे देकर इस विषय को स्पष्ट करेंगे
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"चतुस्त्रिंशत्तमे वर्षे षोडशस्य शतस्य हि ।
पौषे मासे सिते पक्षे, त्रयोदश्यां दिने रखौ ||१८||
नक्षत्रे रोहिणी नाम्नि, सम्यग्योगसमन्विते । सर्वास्वाशासु सौम्यासु, निप्पन्नान्नावनीषु च ॥ १६॥
स्थिरे वरे वृषे लग्ने, शोभमाने शुभैर्ग्रहैः । उच्च-स्थानस्थितैः सर्वैः, स्व-स्वस्वामिभिरीक्षितैः ||२०||
परिपूर्णे तथा सार्धं, नवमासावधौ शुभे ।
पुत्रं प्रासूत सा पूत- जाग्रज्ज्योतिस्तनूदयम् ||२१|| ” ( प्रथम सर्ग )
ऊपर के चार श्लोकों में स्थिरा सेठ के पुत्र 'वासकुमार' के जन्म के लग्न और लग्न स्थित ग्रहों की स्थिति का वर्णन करने के साथ जन्म का निरूपण किया है । इसमें " षोडशस्य शतस्य चतुस्त्रिंशत्तमे वर्षे " यह कथन भ्रान्तिकारक है, क्योंकि षष्ठयन्त षोडश शत के साथ चतुस्त्रिंशत्तमे वर्षे का सम्बन्ध जोड़ने इसका सीधा अर्थ " पन्द्रह सौ चौत्रीस " होगा
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