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निबन्ध-निचय
: ७३
वर्धमानजिनः पूर्व; विजहारतरां निशि । प्रागदीक्षितसच्छिष्यः, शिष्यसन्ततिहेतवे ॥३१॥" (द्वितीय सर्ग)
अर्थात्
तेईस जिन उत्तम स्त्रियों का पाणिग्रहण कर अनेक पुत्रों के पिता बनकर अन्त में मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त हुए। पूर्वकाल में वर्धमान जिन ने सत् शिष्य नहीं किये थे, इसलिये शिष्य-सन्तति के लिए रात्रि में विहार किया । ३०-३१ ।
पाठक श्रीवल्लभजी को जैन शास्त्रानुसार यह लिखना चाहिए था कि वर्तमान चौबीसी के २२ तीर्थङ्करों ने गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के उपरान्त दीक्षा ग्रहण को थी। क्योंकि जैन शास्त्र के इस विषय के दो मतों में से एक भी मत श्रीवल्लभ के उक्त मत का समर्थन नहीं करता । "समवायांग-सूत्र, आवश्यक-नियुक्ति" के कथनानुसार १६ तीर्थङ्कर गृहस्थाश्रम से प्रव्रजित हुए थे और वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान ये पांच तीर्थङ्कर कुंवारे ही दीक्षित हुए थे। तब “दशाश्रुतस्कन्ध' के कल्पाध्ययन के अनुसार २२ तीर्थङ्कर गृहस्थाश्रम से प्रजित हुए थे और मल्लिनाथ तथा नेमिनाथ ये दो जिन ब्रह्मचारी अवस्था से ही दीक्षित हुए थे, परन्तु श्रीवल्लभ पाठक के कथनानुसार तेईस तीर्थङ्करों ने गृहस्थाश्रम से दीक्षित होने का कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं मिलता। मालूम होता है, श्री पाठकजी की यह अनाभोगजनित स्खलना मात्र है।
तीर्थङ्कर वर्धमान के पहले शिष्य न करने और बाद में शिष्यसन्तति के लिए रात्रि में विहार करने का कथन 'वासकुमार' के प्रसंग के साथ किसी प्रकार की संगति नहीं रखता। 'वासकुमार' दीक्षा ग्रहणार्थ परिणयन का निषेध करते हैं, तब तीर्थङ्कर वर्धमान ज्ञान-प्राप्ति के बाद रात्रि के समय चलकर मध्यमा नगरी के महासेन वन पहुंचते हैं। इसका कारण शिष्य-सन्तति का लोभ नहीं, किन्तु उपकार का सम्भव जानकर तीर्थङ्कर नाम कर्म खपाने की भावना से विहार कर वहाँ पहुंचते हैं।
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