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निबन्ध-निचय
"विजया १, सुन्दरा २ (सुन्दरी), वल्लभा ३, हंसा ४, विमला ५, चन्द्रा ६, कुशला ७, रुचि ८, सागरा ६, सौभाग्या १०, हर्षी ११, सकला १२, उदया १३, आनन्दा १४ । उक्त शाखाओं के अतिरिक्त 'सोमा' आदि अन्य शाखाएँ भी प्रचलित थीं। कवि ने इनका सामान्य अर्थ भी निरुक्त के रूप में दिया है, परन्तु इसकी चर्चा कर हम विषय को बढ़ाना नहीं चाहते।
ग्रन्थ के कवि श्री श्रीवल्लभ उपाध्याय की योग्यता :
अपने गच्छ के आचार्यों की प्रशस्तियां तो सभी लिखते हैं, परन्तु अन्य गच्छ तथा उसके प्राचार्यों की प्रशस्ति लिखने वाले श्रीवल्लभ पाठक जैसे शायद ही कोई विद्वान् हुए होंगे। श्रीवल्लभ की इस अन्य गच्छ-भक्ति से इतना तो निर्विवाद है कि ये गुणानुरागी पुरुष थे, इसमें कोई शंका नहीं।
कवि श्रीवल्लभ ने अपनी इस कृति को “महाकाव्य" के नाम से उल्लिखित किया है, यह ठीक नहीं अँचता। क्योंकि इसमें रस, रीति, अलंकार आदि काव्य लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते। इतना ही नहीं, अनेक स्थानों पर छन्दोभंग आदि साहित्यिक अशुद्धियाँ भी प्रचुर मात्रा में दृष्टिपथ में आती हैं। इस परिस्थिति में लेखक इसको "महाकाव्य' न कहकर "चरित्र" कहते तो अच्छा होता।
पाठक श्रीवल्लभ कवि की इस कृति से यह भी मालूम हुआ कि उनका आगमिक ज्ञान बहुत कच्चा होना चाहिए। वासकुमार की केवल नौ वर्ष की अवस्था में कवि उनके यौवन तथा परिणयन की बातें करता है। "वर्तमान चतुर्विंशति के २३ तीर्थङ्करों ने भी विवाह करने के उपरान्त दीक्षा ली थी, तो तुम्हें भी पहले गृहस्थाश्रम स्वीकार कर पिछले जीवन में प्रव्रज्या लेना चाहिए" ऐसा उनके माता-पिताओं के मुख से कहलाता है । काव्य के मूल शब्द निम्नोद्धृत हैं
"त्रयोविंशतिरहन्तः, परिणीतवरस्त्रियः । संजातानेकपुत्राश्च, प्रान्ते प्रापुः शिवश्रियम् ॥३०॥
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