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________________ निबन्ध - निचय ३. उस समय आचार्यों को भक्त गृहस्थों अथवा संघ के प्रागेवानों का बड़ा लिहाज रखना पड़ता था । जहाँ वे चातुर्मास्य में अथवा शेषकाल में स्थिरता करते थे, वहाँ से विहार करने के पहले खास भक्त अथवा संघ की आज्ञा मानते । जब तक वे आज्ञा नहीं देते, तब तक वे वहाँ से बिहार नहीं करते थे । एव बार विजयदेव सूरिजी जालोर में थे, तब मेड़ता से गृहस्थ संघ के प्रागेवानों के साथ मेड़ता में जिन प्रतिष्ठा करने के लिए आचार्य को मेड़ता पधारने की विनती करने आए, परन्तु उन्हें विश्वास था कि जब तक जयमल्लजी मुणोत जो सूरिजी के परम भक्त थे, ग्राचार्य को विहार की आज्ञा नहीं देंगे, तब तक प्राचार्य जालोर नहीं छोड़ेंगे ! इसीलिए वे प्रथम जयमल्लजी से मिले और उनसे प्रार्थना की जो निम्न श्लोक से ज्ञात होगी “मन्त्रिणं जयमल्लं ते, मिलित्वा चावदन्निदम् । सूरीन्द्रं मुख धर्मात्मनेति यत् त्वद्वचो विना ॥ ४२ ॥ | " ( दशम सर्ग ) ग्रर्थात् — 'मेड़ता के संघ के आने वाले ग्रग्रेसर मन्त्री जयमल्लजी को मिलकर यह बोले - हे धर्मात्मन् जयमल्लजी ! प्राचार्य विजयदेव सूरिजी को हमारे वहाँ भेजो, क्योंकि ग्रापके कहे विना वे नहीं आयेंगे । : ७१ ४. उस समय ग्राचार्य सोने रूपे से अपनी नवांग पूजा करवाते थे, जो रीति चैत्यवासियों के द्वारा प्रचलित हुई थी । परन्तु इसकी उत्पत्ति का पूरा ज्ञान न होने के कारण इस प्रकार की पूजा कोई कोई सुविहित साधुओं के लिए भी विहित मानते हैं, यह बात योग्य नहीं कही जा सकती। क्योंकि ग्रागमों की पंचागी में इसका कोई विधान नहीं मिलता । “विजयदेव माहात्म्य" के अन्तिम उन्नीसवें सर्ग में उपाध्याय श्रीवल्लभ कवि ने तपागच्छ की तत्कालीन कुछ शाखाओं का उल्लेख किया है, जिनके नाम नीचे दिये जाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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