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________________ निबन्ध-निचय "एधतां श्री तपागच्छो, दीप्यतां सवितेव च । तेजसा सूरिमन्त्रस्य, त्वदीयस्य च सर्वदा ॥१५॥ महीयान् श्री तपागच्छः, सर्वगच्छेसु सर्वदा । सर्वदा सर्वदाता च, पर्वतात्सर्ववाञ्छितम् ॥१६॥ राजान इव विद्यन्ते, श्रावका यत्र सर्वदा । नन्दताच्छ्रीतपागच्छः सततं स ततक्षणः ॥१७॥ यत्र त्वमीदृशः सूरि वर्तसे गच्छनायकः । स्तूयते चेति विद्वद्भिः, पातिसाह्यादिभिर्नु पैः ॥१८॥" अर्थ श्री तपागच्छ वृद्धिंगत हो और तुम्हारे (विजयदेव सूरि) सूरि मन्त्र के तेज से सूर्य की तरह सदा देदीप्यमान रहो। श्री तपागच्छ सर्व गच्छों में सदा महान् है और वह सदा सर्व पदार्थों को देने वाला है। जैसे पर्वत से सर्ववाञ्छित प्राप्त होते हैं, जिसमें श्रावक राजारों के जैसे समृद्धिमन्त हैं और जिस गच्छ में निरन्तर उत्सव होते रहते हैं, ऐसा तपागच्छ सदा समृद्धिमन्त हो, जिसमें तुम्हारे जैसे गच्छनायक हैं, जो विद्वानों द्वारा तथा बादशाह आदि राजाओं द्वारा सदा स्तुति गोचर किये जाते हैं । १५-१८ । विजयदेव सूरिजी के समय में प्रचलित कुछ रीतियाँ : १. कवि श्रीवल्लभ ने श्री वासकुमार के जन्म के दशवें दिन उनके पिता सेठ स्थिरा द्वारा अपने मित्र सम्बन्यिों को आमन्त्रित कर भोज देकर पुत्र का नामकरण करवाया है। इतना ही नहीं, किन्तु नवजात बालक को दर्शनार्थ देवमन्दिर ले जाने की बात भी कही है। इससे मालूम होता है कि उस समय जैनों में दसवें दिन पुत्र जन्म-सम्बन्धी सूतक पूरा हो जाता था। . २. आचार्य श्री विजयदेव सूरिजी त्यागी और त्यागियों के गुरू होते हुए भी नगर-प्रवेश के समय रेशमी अथवा सूती वस्त्र जो भक्तों द्वारा मार्ग में विछाये जाते थे, उन पर चलते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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