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निबन्ध-निचय कवि इस विषय में स्वयं कहते हैं
"यदन्यगच्छप्रभवः कविः किं, मुक्त्वा स्वसूरि तपगच्छसूरेः । कथं चरित्रं कुरुते पवित्रं, शंकेयमायन कदापि कार्या ॥२००॥ आत्मार्थसिद्धिः किल कस्य नेष्टा, सा तु स्तुतेरेव महात्मनां स्यात् । आभारणकोऽपि प्रथितोऽस्ति लोके, गंगा हि कस्यापि न पैतृकीयम् ॥२०१॥ तस्मान्मया केवलमर्थसिद्धय , जिह्वा पवित्रीकरणाय यद्वा । इति स्तुतः श्री विजयादिदेवः, सूरिस्समं श्री विजयादिसिंहैः ॥२०२।। प्राचन्द्र-सूर्यं तपगच्छधुर्यो, वृतो परेणापि परिच्छदेन । जीयाच्चिरं स्तान्मम सौख्यलक्ष्म्य, श्री वल्लभः पाठक इत्यपाठीत् ॥२०३॥"
अर्थात्
अन्यगच्छीय कवि अपने प्राचार्य को छोड़कर, तपागच्छ के प्राचार्य का पवित्र चरित्र क्यों बनाता है, इस प्रकार की शंका सज्जन पुरुषों को कदापि नहीं करनी चाहिए। यात्मार्थ-सिद्धि सभी को इष्ट होती है और वह महात्मात्रों की स्तुति से ही प्राप्त होती है। लोगों में कहावत प्रसिद्ध है कि “गंगा किसी के बाप की नहीं है", इसीलिए मैंने केवल अपनी अर्थ सिद्धि के लिए अथवा जिह्वा को पवित्र करने के लिए आचार्य श्री विजयसिंह सूरि के साथ श्री विजयदेव सूरि की ऊपर मुजब स्तुति की है। चन्द्र सूर्य की स्थिति पर्यन्त तपागच्छ के धुरन्धर प्राचार्य श्री (विजयदेव सूरि) अपने परिवार से परिवृत्त होकर विजयी हों और मेरे लिए सुख लक्ष्मी के देने वाले हों ऐसा पाठक श्रीवल्लभ का कहना है । २००-२०३ ।
कवि श्रीवल्लभ पाठक विजयदेव सूरि को चिरविजयी रहने की आशंसा करते हैं और इस काव्य को रचना द्वारा जिह्वा पवित्र करने के अतिरिक्त गुणी के गुणगान करने से जो आत्मिक लाभ होता है, उसी की वे प्रार्थना करते हैं। कवि ने तपागच्छ के आचार्यों की ही स्तुति नहीं गाई किन्तु तपागच्छ की भी दिल खोलकर प्रशंसा को है। वे लिखते हैं
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