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निबन्ध-निचय
अहमदाबाद के उपनगर श्री शकन्दर में श्रावक लहुया पारिक के प्रतिष्ठा महोत्सव के प्रसंग पर सं० १६५५ के मार्गशीर्ष शुक्ला ५ के दिन आचार्य श्री विजयसेन सूरिजी के हाथ से हुआ था ।
विजयदेव सूरिजी का प्राचार्य पद खंभात में हुआ। खंभातवासी श्रीमल्ल नामक श्रावक की विज्ञप्ति स्वीकार कर आचार्य श्री विजयसेन सूरिजी खंभात पधारे । श्रीमल्ल ने बड़ा उत्सव किया, देशदेश आमन्त्रण-पत्रिकाएँ भेज कर संघ को बुलाया । प्राचार्य विजयसेन सूरिजी ने विक्रम सं० १६५७ के वैशाख शुक्ला चतुर्थी के दिन पण्डित विद्या विजयजी को सूरि मन्त्र प्रदान पूर्वक आचार्य पद दिया और संघ समक्ष उन्हें "विजयदेव सूरि' इस नाम से प्रसिद्ध किया ।
विजयदेव सूरि को गच्छानुज्ञा दिलाने के लिए पाटण निवासी श्रावक सहस्रवीर ने ८हुत धन खर्च कर "वंदनोत्सव" इस नाम से वड़ा भारी उत्सव किया। इसी उत्सव में प्राचार्य श्री विजयसेन सूरिजी ने आचार्य श्री विजयदेव सूरिजी को सं० १६५८ के पोष कृष्णा ६ गुरु के दिन “गच्छानुज्ञा" कर उन्हें वन्दन किया ।
पाटण से गुरू शिष्य दोनों प्राचार्य अपने परिवार तथा श्रावकों के साथ श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा के लिए गए और उसके वाद मारवाड़ की तरफ विहार किया ।
"विजयदेव माहात्म्य" के लेखक उपाध्याय श्रीवल्लभ :
प्रस्तुत "विजयदेव माहात्म्य'' के कर्ता कवि श्री श्रीवल्लभ उपाध्याय बृहद् खरतरगच्छीय प्राचार्य श्री जिनराज सूरि सन्तानीय पाठक श्री ज्ञानविमलजी के शिष्य थे। आपका तपागच्छाधिराज श्री विजयहीर सूरिजी तथा उनके शिष्य श्री विजयसेन सूरिजी तथा श्री विजयदेव सूरिजी पर बड़ा गुणानुराग था । यही कारण है कि उपाध्याय श्रीवल्लभ जैसे विद्वान् ने तपागच्छ तथा इस गच्छ के आचार्यों की यह जीवनी लिखी है।
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