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________________ निबन्ध-निचय : ६७ यह आज के हमारे प्राचार्यों की कमजोरी का प्रमाण है । यदि इसी प्रकार हमारी संविज्ञ शाखा के प्राचार्य तथा श्रमण-गरण प्रतिदिन निर्बल बनते जायेंगे, तो पूर्वकालीन "श्री पूज्य' नाम से पहचाने जाने वाले आचार्यों और “यति" नाम से परिचित हुए साधुओं की जो दशा हुई थी वही दशा आज के प्राचार्यों तथा साधुअों की होगी, इसमें कोई शंका नहीं है। विजयदेव सूरिजी का उपदेश : ___“विजयदेव-माहात्म्य'' के पढ़ने से ज्ञात होता है, कि विजयदेव सूरिजी के समय में धर्मोपदेश का मुख्य विषय जैन-मन्दिरों का निर्माण प्राचीन जैन-मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाना, जैन-मूर्तियों का बनवाना और तीर्थयात्राओं के लिए संघ निकलवाना इत्यादि मुख्य था । यद्यपि मुनि-धर्म, गृहस्थ-धर्म आदि के उपदेश भी होते रहते थे, फिर भी उपर्युक्त तीनों विषयों का उपदेश विशेष रहता था। आज के उपधानों, उद्यापनों, अष्टोत्तरी तथा शान्तिस्नात्र आदि के उपदेश महत्त्व नहीं रखते थे। ये कार्य भी होते अवश्य थे, परन्तु बहुत ही अल्प प्रमाण में। विजयदेव सूरिजी ने अपने जीवन में हजारों प्रतिमाओं का अंजनविधान करके उन्हें पूजनीय बनाया । सैकड़ों प्रतिमाओं को जिनालयों में प्रतिष्ठित करवाया, अनेक रंगों द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थों की यात्राएँ की। परन्तु सारे ग्रन्थ में "इपधान" का नाम एक ही बार आया है, तब उद्यापन कराने का प्रसंग कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ । विजयदेव सूरिजी का जन्म-स्थान ईडर नगर था । इनके पिता का नाम सेठ "स्थिरा" और माता का नाम "रूपां" था । इनका खुद का गृहस्थावस्था का नाम “वासकुमार" था । इनकी दीक्षा शहर अहमदाबाद में हाजा पटेल की पोल में श्री विजयसेन सूरिजी के हाथ से वि० सं० १६४३ के माघ शुक्ला १० के दिन हुई थी और दीक्षा नाम 'विद्याविजय' रखा गया था। इनकी माता रूपाँ की दीक्षा भी इसी दिन इनके साथ ही हुई थी। विद्याविजयजी का 'पण्डित-पद' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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