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________________ ६६ : निबन्ध - निचय विजयसेन सूरिजी के बाद राजसागर सूरिजी, उनके पट्टधर वृद्धिसागर सूरिजी आदि के नाम कल्पित करके सागरों ने अपनी शाखा सदा के लिए कायम कर ली । इस शाखा में प्रारम्भ में धर्मसागर के ग्रन्थों को प्रामाणिक मानने वाले सागरों की ही टोली थी । अधिकांश सागर-शाखा के साधु विजयहीर सूरि, विजयसेन सूरि, विजयदेव सूरि यदि ग्राचार्यों की प्राज्ञा में रहने वाले थे । उ० धर्मसागरजी की परम्परा के अधिकांश साधु विजय शाखा के आचार्यों की आज्ञा के बाहर थे । अहमदाबाद में नगर सेठ शान्तिदास का कुटुम्ब तथा अन्य कतिपय गृहस्थ इनकी परम्परा को मान देते थे, परन्तु विजयदेव सूरि से शास्त्रार्थ करने में पीछे हटने से इन सागरों पर से अधिकांश भक्तों की श्रद्धा हट गई । परिणामस्वरूप धर्मसागरजी के ग्रन्थों के अनुसार ग्रनागमिक प्ररूपणा करना बन्द हो गया । बाद में अन्य शाखाओं की भाँति सागर शाखा भी चलती रही, परन्तु प्ररूपणा में कोई भेद नहीं रहा । आज विजय शाखा में संविज्ञ पाक्षिक साधुग्रों की परम्परा विस्तृत रूप में फैली हुई है । आचार्यों द्वारा चलाई जाने वाली विजयदेव तथा विजयानन्द सूरि की मूल परम्पराएँ अस्तित्व में नहीं हैं, इसी प्रकार धर्मसागरजी उपाध्याय की शिष्य परम्परा ने चलाई हुई सागर परम्परा भी प्राज विद्यमान नहीं है । आज सागर नाम के साधुयों की जो शाखा चल रही है, वह भी क्रियोद्धारक -संविज्ञ - पाक्षिक साधुयों की है । इस प्रकार विजयान्त नाम वाले साधुयों की मूल दो परम्पराएँ और सागर की मूल परम्परा कभी की विच्छिन्न ही चुको हैं । उपाध्याय धर्मसागरजी जिन ग्रन्थों के प्रचार के अपराध में गच्छ बाहर हुए थे और उनकी परम्परा के सागर साधुओं को भी उन्हीं ग्रन्थों के प्रचार करने के अपराध में तपागच्छ के आचार्यों की आज्ञा के बाहर ठहराया गया था, उन्हीं ग्रन्थों का आज संविज्ञ शाखा के कतिपय सागर नामधारी प्रचार कर रहे हैं । परन्तु हमारी संविज्ञ शाखा के कहलाने वाले आचार्यों द्वारा इसका कोई प्रतीकार नहीं होता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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