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________________ निबन्ध-निचय विक्रम सं० १६५८ के बाद और १६७१ के पहले की होनी चाहिए, क्योंकि विजयदेव सूरिजी १६५८ में गच्छ के नेता बनाए गए थे और विक्रम सं० १६७१ में प्राचार्य श्री विजयसेन सूरि स्वर्गवासी हुए थे। इन दो घटनाओं के बीच के १३ वषों में किस समय यह घटना घटी होगी यह कहना तो कठिन है, परन्तु प्रस्तुत 'माहात्म्य" के एक सर्ग में विजयदेव सूरिजी की तपस्याओं का वर्णन किया है। वहाँ लिखा है कि प्राचार्य देवसरिजी ने यह तप करना विक्रम सं० १६६१ के वर्ष से शुरू किया था। इससे अनुमान होता है कि गच्छ-भेद इसके पहले हो गया होगा और इस समय वे अपने गुरू से जुदे विचरते होंगे। देवसूरिजी के तप और त्याग ने उनके मित्र का काम किया : - आचार्य विजयदेव सूरिजी ने जो तपस्या शुरू की थी, उसने गृहस्थ-वर्ग के मनों पर ही नहीं, गच्छ के श्रमण-वर्ग पर भी अपूर्व प्रभाव डाला, जो श्रमण गच्छ भेद के समय में उनकी आज्ञा के विरुद्ध नये प्राचार्य की आज्ञा में चलने लगे थे। उनमें से भी अधिकांश विद्वान् साधु धीरे धीरे विजयदेव सूरिजी की आज्ञा में आते रहते थे। इस बात को एक उदाहरण ले समझाया जा सकता है, जब विजयदेव सूरि के विरुद्ध नया आचार्य बनाया गया था, तब उपाध्याय श्री विनयविजयजी नये प्राचार्य के पक्ष में थे, जो संवत् १६६६ तक उसी पार्टी में बने रहे। परन्तु विनयविजयजी ने बाद में बनाये हुए अपने ग्रन्थों में विजयदेव सूरिजी को गच्छ-पति के रूप में याद किया है। इसी प्रकार दूसरे भी अनेक विद्वान् श्रमण धीरे धीरे विजयदेव सूरिजी को अपना आचार्य मानने लगे थे। यह सब उनके तप का फल था, ऐसा कहा जाय तो अनुचित न होगा। विजयदेव सूरिजी का विशेष विहार मारवाड़, मेवाड़, दक्षिण तथा सौराष्ट्र की तरफ हुआ है। अधिकांश प्रतिष्ठाएँ, दीक्षाएँ, तीर्थ यात्राएँ इसी प्रदेश से निकली हैं। जालोर के दीवान जयमलजी मुणोयत इनके अनन्य भक्त थे, इनकी बात विजयदेव सूरिजी ने कभी अमान्य नहीं की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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