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________________ ६४ : निबन्ध-निचय नगर जालोर में इनके हाथ से अथवा इनके आज्ञाकारी जयसागर गणी के हाथ से जयमलजी द्वारा कोई ४ अंजन-शलाकाएँ हुई थीं। इनके पट्टधर प्राचार्य विजयसिंह सूरि को सं० १६८४ में गच्छानुज्ञा भी जयमलजी ने ही करवाई थी। इतना ही नहीं तीन वर्षा-चातुर्मास्य विजयदेव सूरिजी ने जालोर में किये थे। इसी प्रकार मेड़ता, पाली, जोधपुर, सिरोही आदि नगरों में आपके चातुर्मास्य हुए और प्रतिष्ठादि अनेक धर्म-कार्य हुए थे। यह सब होते हुए भी गच्छ-भेद होने के बाद आपने गुजरात, सौराष्ट्र, मेवाड़ वगैरह अनेक देशों में विहार कर अनेक राजाओं तथा राजकर्मचारियों को अपना अनुयायी बनाया था। गच्छ-भेद होने के उपरान्त प्राचार्य श्री विजयसेन सूरिजी के साथ श्री विजयदेव सूरिजी के विहार की बात नहीं पाती। इससे ज्ञात होता है कि आप को गच्छानुज्ञा होने के बाद अपने गुरू प्राचार्य श्री विजयसेन सूरिजी से जुदा विहार करने का प्रसंग पाया होगा, क्योंकि "विजयदेव माहात्म्य" में आप अपने गुरू के साथ सं० १६५८ के बाद कहीं दिखाई नहीं देते। इसका कारण यही हो सकता है, कि अापको गच्छनायक बना लेने के बाद थोड़े ही समय में गच्छ में बखेड़ा खड़ा हुआ और गुरू शिष्य का विहार जुदा पड़ा। कुछ भी हो, हमारी राय में विजयदेव सूरिजी ने विपरीत प्ररूपणा करने वाले सागरों का कभी पक्ष नहीं लिया। यही नहीं, जहाँ कहीं प्रसंग आया है, वहाँ आप सागरों के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए भी तय्यार हए हैं। अहमदाबाद के नगर सेठ श्री शान्तिदास जो सागरों के पक्के भक्त थे और दोनों पार्टियों के नेताओं को मिलाकर शास्त्रार्थ द्वारा इस मतभेद का निराकरण कराना चाहते थे, उन्होंने अपनी तरफ से कतिपय सद्गृहस्थों को अपना पत्र देकर भी विजयदेव सूरिजी के पास मेड़ता नगर भेजा और आपसी दो पक्षों का निर्णय करने के लिये जालोर तक पधारने की प्रार्थना की। उधर सागर-गच्छ के उस समय के मुख्य विद्वान् मुक्तिसागरजी को भी विजयदेव सूरिजी के साथ चर्चा कर गच्छ में शान्ति स्थापित करने की प्रार्थना की। प्राचार्य विजयदेव सूरिजी ने सेठ शान्तिदास की विनती को मान देकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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