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निबन्ध-निचय
तरफ से विजयदेव सूरिजी को एक पत्र लिखा गया था जिसमें "अपन को गच्छ में लिवाने की सिफारिश की थी । उस पत्र के उत्तर में विजयदेव सूरिजी ने लिखा था कि "जब तक गुरू - महाराज विद्यमान हैं तब तक मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता" देवसूरिजी का यह पत्र किसी सागर - विरोधी के हाथ लगा और आगे से आगे यह पत्र आचार्य श्री विजयसेन सूरिजी के पास पहुंचा । आचार्य ने अपने गच्छ के खास खास गीतार्थ उपाध्यायों, पन्यासों को इकट्ठा करके देवसूरि के इस पत्र की उनके सामने चर्चा की और इसका वास्तविक भाव पूछा । इस पर सागरों के विरोधी उपाध्यायों, पन्यासों आदि ने बाल की खाल निकालते हुए कहा - " विजयदेव सूरि सागरों के 'क्ष में हैं, भले ही आपके जीवन काल में ये कुछ न करें, परन्तु उनको सार्वभौम सत्ता मिलते ही सागरों का खुल्लमखुला पक्ष लेंगे और गच्छ में दो दल पड़कर सागर - विशेष निरंकुश बन जायेंगे”। इन बातों को सुनकर श्री विजयसेन सूरिजी महाराज ने अपने गच्छ के सब विद्वान् साधुत्रों की राय माँगी कि अब इसके लिए क्या किया जाय ? गीतार्थों का एक मत तो नहीं हुआ, परन्तु उपाध्याय सोमविजयजी आदि अधिक गीतार्थ नया प्राचार्य पट्टधर बनाकर विजयदेव सूरिजी तथा सागरों की शान ठिकाने लाने के पक्ष में रहे, तब कतिपय गीतार्थ साधुत्रों ने श्री विजयदेव सूरि पर विश्वास रखने का अभिप्राय भी व्यक्त किया । आखिर बहुमत की चली और एक साधु को प्राचार्य पद देकर उनको "विजयतिलक सूरि" के नाम से जाहिर किया । तत्काल भले ही सागरों के विरुद्ध बहुमत होने से नया प्राचार्य स्थापित हो गया और गच्छ के कुछ भाग ने उनकी आज्ञा में रहना भी स्वीकार कर दिया, पर पिछली घटाओं से मालूम होता है कि गच्छ के इस भेद ने धीरे धीरे उग्र रूप धारण किया । विजयदेव सूरिजी के सम्बन्ध में जो अविश्वास की बात सोची गई थी, वह वास्तविक नहीं थी । परन्तु सागरों के विरोधियों ने सागरों के साथ साथ इस तपस्वी आचार्य श्री विजयदेव सूरिजी को भी बदनाम करने में उठा नहीं रखा । भविष्य में जिस गच्छ भेद की आशंका की थी, वह तुरन्त उनके समय में ही सच्ची पड़ गई । जहाँ तक हमारा ख्याल है, यह घटना
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