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५८ :
निबन्ध-निचय
यह उपर्युक्त कथन शास्त्र-विरुद्ध ही नहीं, मिथ्यात्व का दर्द्धक भी है। जैन शास्त्रों में तो जिनदेव आदि का पूजन विनय आदि सम्यक् शुद्धि के लिये करना बतलाया है। तब तपोविधान पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों की निर्जरा के लिए, उक्त प्रकार के अल्पज्ञ और अगीतार्थं साधुओं द्वारा प्रचारित अयोग्य अनुष्ठानों तथा प्राचारों के प्रताप से आज का जैन धर्म अपना लोकोत्तरत्व छोड़कर लौकिक धर्म बनता जा रहा है। आशा करना तो व्यर्थ है, फिर भी सब्र न होने से कहना पड़ता है कि हमारे श्रमण-गरण उक्त पंक्तियों को पढ़कर उक्त प्रकार के निस्सार अनुष्ठानों तथा आचारों को समाज में फैलने से रोके, ताकि जैन धर्म अपना स्वत्व बचा सके।
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