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निबन्ध-निचय
धनार्थी धनमाप्नोति, पदाथीं लभते पदम् । भार्यार्थी लभते भार्यां, पुत्रार्थी लभते सुतान् ॥२॥
सौभाग्यार्थी च सौभाग्यं, गौरवार्थी च गौरवम् । राज्यार्थी च महाराज्यं, लभतेऽस्यैव तुष्टितः ॥३॥
एतत्तपो विधायिन्यो, योषितोऽपि विशेषतः । वन्ध्या-निन्द्यादि-दोषाणां, प्रयच्छन्ति जलाञ्जलिम् ॥८॥"
अर्थात्
इस प्रकार श्री "सिद्ध चक्र" का अाराधक, विधि पूर्वक साधना करता हुआ, सिद्ध नाम धारण करके महामन्त्र-यन्त्रमय बन कर मनोवांछित फल को प्राप्त करता है ॥१॥
धन का इच्छुक धन को, स्त्री का अभिलाषी स्त्री को, पदाधिकार का इच्छुक पदाधिकार को, पुत्र-कामी पुत्रों को प्राप्त करता है ॥२ ।।
सिद्धचक्र की कृपा से सौभाग्यार्थी सौभाग्य को, महत्त्वाकांक्षी महत्त्व को और राज्य का अभिलाषी महाराज्य को प्राप्त करता है ॥ ३ ॥
x इस सिद्ध चक्र के तप का आराधन करने वाली स्त्रियाँ भी खास कर वन्ध्यात्व ( वाँझपन), मृतवत्सात्व आदि दोषों को जलाञ्जलि देती हैं ॥८॥
ऊपर के श्लोकों में वर्णित जिनादि पदों के आराधक पुरुषों को तथा लन्निमित्तक तप करने वाली स्त्रियों को पोद्गलिक तुच्छ फलों का प्रलोभन देकर परमेष्ठी पदों की तथा तप पद की आराधना का उपहास किया है। क्या "सिद्धचक्र' का आराधन तथा तपश्चर्या इन्हीं क्षुद्र फलों के निमित्त करने का शास्त्र ने लिखा है, कभी नहीं ।
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