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निबन्ध-निचय
"मदन सुन्दरी' को बतलाया जाता है, ठीक है, यह इस तप के महिमा पर एक माहत्म्य-दर्शक आख्यान है, ऐतिहासिक वस्तु नहीं। ऐतिहासिक दृष्टि से अन्वेषण करने पर "सिद्धचक्र" यह नाम आचार्य श्री हेमचन्द्र के व्याकरण की बृहद् वृत्ति में मिलता है। चतुर्दश शताब्दी के पूर्वतन किसी भी “पागम-शास्त्र" में, प्रकरण-विशेष में अथवा चरित्र में "सिद्धचक्र यन्त्रोद्धार" की बात अथवा 'श्रीपाल' तथा मदना के तपोविधान की बात हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुई।
इस परिस्थिति में “सिद्धचक्र-यन्त्र' का पूर्वश्रुत से श्री मुनिचन्द्र सूरिजो ने उद्धार किया, यह कथन मात्र श्रद्धा-गम्य रह जाता है, इतिहास के रूप में नहीं।
प्रारम्भ में "सिद्ध चक्र-यन्त्रोद्धार पूजन विधि” श्वेताम्बरीय है, या दिगम्बरीय, इस प्रश्न को लक्ष्य में रखकर अंतरंग बहिरंग निरूपणों को जांचा, तो हमें प्रतीत हुआ कि यह पूजन विधि न पूरी श्वेताम्बरीय है न दिगम्बरीय, किन्तु दोनों परम्पराओं की मान्यताओं के मिश्रण से बनी हुई एक खीचडा-पद्धति है ।
उपसंहार :
"सिद्ध चक्र-महापूजा' के विषय में बहुत समय से कतिपय प्रतिष्ठाविधि कारकों का कुछ प्रकाश डालने का अनुरोध था, फलस्वरूप इस पूजा के सम्बन्ध में ऊहापोह किया है ।
मेरी राय में प्रस्तुत "सिद्ध चक्र-यन्त्रोद्धार पूजन विधि” जैन सिद्धान्त से मेल न खाने वाली एक अगीतार्थ प्रणीत अनुष्ठान पद्धति है। इसकी कई बातें जैन सिद्धान्त-प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त के मूल में कुठाराघात करने वाली है। नमूने के रूप में निम्नोद्धृत श्लोक पढ़िए
“एवं श्री सिद्ध चक्रस्याराधको विधि-साधकः । सिद्धाख्योऽसौ महामन्त्र-यन्त्रः प्राप्नोति वाञ्छितम् ॥१॥
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