________________
निबन्ध-निचय
श्रीपाल कथा" के निर्माण होने के बाद संस्कृत में तथा लोक भाषा में अनेक 'श्रीपाल कथाओं' का निर्माण श्वेताम्बर तथा दिगंबर परंपरा के विद्वानों ने किया और उनके श्रवण से जैन समाज में नवपद-तप का प्रचार बढ़ा। इस समय के पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में न "सिद्धचक्र" के पूजन की चर्चा हैं, न नवपद की अोली का तपोविधान। पूर्व में
आश्विन तथा चैत्री अष्टमी से लगाकर पूर्णिमा तक लौकिक उत्सव होते थे, हिंसा भी होती थी, आठ दिन तक खाने-पीने तथा नाचरंग में जन समाज लवलीन रहता था, इस परिस्थिति को देखकर जैनाचार्यों ने जैन-गृहस्थों को "इन लौकिक प्रवृत्ति प्रधान दिवसों में जैनों को तप का आदर करना चाहिए' ऐसा उपदेश किया। परिणामस्वरूप जैन समाज में अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त अष्टाह्निका में आयंबिल तप करने की प्रवृत्ति बढ़ी, पूर्णिमानों के बाद की प्रतिपदाएँ यद्यपि उत्सव के अन्तर्गत नहीं थी, फिर भी उन दिनों में खान-पान के प्रारंभ विशेष रूप से होते थे। अतः जैनाचार्यों ने इन दिनों में अनध्याय तथा जैन-गृहस्थों ने आयंबिल-तप रखने का उचित समझा। बारहवीं शती के प्राचार्य श्री जिनदत्त सूरि ने अपने अनुयायियों से कहा कि अष्टमी की तरह शुक्ल सप्तमी भी देवी-देवताओं के प्रचार की तिथि है। अतः इसे भी उत्सव के अन्तर्गत ले लेना चाहिए, जिससे अन्तिम आयंबिल अपर्व तिथि प्रतिपदा में न आकर पूर्णिमा में
आ जाय और उस दिन विशेष जिनभक्ति की जा सके। जिनदत्त सूरि के अनुयायियों ने अपने प्राचार्य की आज्ञा का पालन किया होगा या नहीं यह कहना कठिन है, परन्तु इतना तो निश्चित है कि प्राकृत : श्रीपाल कथा" के निर्माण समय तक अन्य गच्छ वालों ने सप्तमी को अष्टाह्निका के अन्तर्गत नहीं किया था। बाद में धीरे धीरे आयंबिल तप के भीतर सप्तमी का समावेश हो गया, फलतः अठारहवीं शती की सभी श्रीपाल कथानो" में शुक्ल सप्तमी से आयंबिल आरंभ करने का विधान मिलता है ।
श्वेताम्बर जैन परंपरा में लाखों वर्षों से "सिद्ध चक्र" का पूजन और तन्निमित्तक आयंबिल-तप चला आ रहा है, ऐसी मान्यता प्रचलित है और इसके प्रथम आराधक राजा "श्री पाल'' और उनकी रानी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org