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________________ ५४ : निबन्ध-निचय के मध्य में “अरिहन्त'' इसके पूर्व में "सिद्ध", दक्षिण में "प्राचार्य', पश्चिम में "उपाध्याय" और उत्तर दिशा विभाग में सर्व साधुओं को स्थान दिया है, इसके बाद ईशान, अग्नि, नैऋत और वायव्य कोणों में क्रमशः दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप पदों का विन्यास किया गया है। तब आजकल के हमारे "सिद्धचक्र यन्त्रों" में पांच पदों के अतिरिक्त विदिशाओं के दर्शन आदि चार पदों का आग्नेय कोण से प्रारम्भ कर के ईशान तक स्थापन किया जाता है। यह परिवर्तन कब और किसने किया, यह कहना कठिन है। फिर भी इतना तो निश्चित सा है कि यह परिवर्तन किसी श्वेताम्बर आचार्य के द्वारा हुआ है। "सिद्धचक्र" की चर्चा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही नहीं, अपितु दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में भी प्राचीन काल से प्रचलित है, दिगम्बर भट्टारक श्री देवसेन सूरि ने अपने "भाव संग्रह' नामक ग्रन्थ में लगभग ४० गाथाओं में "सिद्धचक्र" के यन्त्र की और उसके पूजन की चर्चा की है। श्री देवसेन प्रस्तुत ग्रन्थ के आधार से प्राचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि के पूर्ववर्ती हैं वह तो निश्चित है ही, पर "सिद्धचक्र की पूजा" बनाने वाले अन्य दिगम्बर विद्वानों से भी देवसेन प्राचीन हैं। इन्होंने भी अपने "सिद्धचक्रयन्त्र' में पंचपरमेष्ठी के पूजन का ही निरूपण किया है, 'नवपदी की पूजा का नहीं'। इन सब बातों का विचार करने से प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में "सिद्ध चक्र" का पर्याय पंचपरमेष्ठी होता था, 'नवपद' नहीं, लगभग विक्रम की पन्द्रहवीं शती के पूर्व में और बारहवीं सदी के बाद में "सिद्धचक्र" का स्थान "नवपद मण्डल" ने लिया होगा, इसका प्रारम्भ किसने किया, यह कहना तो कठिन ही है । (४) ऐतिहासिक दृष्टि से सिद्धचक्र पूजन विधि : वर्तमान काल में प्रायः सभी जैन मन्दिरों में छोटे छोटे "सिद्धचक्र" के मण्डल धातु के गोल पतरे पर मिलते हैं और पूजे जाते हैं, लेकिन ये सभी "सिद्ध चक्र" के मण्डल अधिकांश में २० वीं सदी के ही दृष्टिगोचर होते हैं। सच बात तो यह है कि पन्द्रहवीं शताब्दी की प्राकृत 'श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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