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निबन्ध-निचय
माहेन्द्र, वारूण, वायव्य और आग्नेय मण्डलों का सविस्तार वर्णन किया है। यह मण्डल पद्धति भी दिगम्बर परम्परा में विशेष प्रचलित है। श्वेताम्बर परम्परा की प्रतिष्ठा-पद्धतियों में से केवल पादलिप्त सूरि कृत "प्रतिष्ठा पद्धति' में ही उक्त चार मण्डलों का वर्णन दृष्टिगोचर हुआ है, तब दिगम्बरीय प्रतिष्ठा पाठों में शायद ही ऐसा कोई प्रतिष्ठा पाठ मिलेगा, जिसमें कि उक्त चार मण्डलों का वर्णन न किया हो ।
ऊपर हमने “सिद्धचक्र यन्त्रोद्धार पूजन' को जैन श्वेताम्बरीय और दिगम्बरीय प्रमाणित करने वाले दो प्रकार के जो प्रमाण उपस्थित किये हैं वे उदाहरण मात्र हैं। इनके उपरान्त भी अनेक ऐसे प्रान्तर प्रमाण हैं, जो उपस्थित किये जा सकते हैं, परन्तु लेख विस्तार के भय से छोटीछोटो बातों की तरफ ध्यान देना ठीक नहीं समझा ।
(३) सिद्ध-चक्र-यन्त्र और नवपद मण्डल एक नहीं :
आजकल श्वेताम्बर जैन समाज में "सिद्ध-चक्र" के पूजन काल में नवपद के पूजन का प्रचार सर्वाधिक रूप से हो गया है। इसके आराधन के उद्देश्य से गुजरात आदि देशों में नवपद मण्डलों की नियुक्तियाँ तक हुई हैं, और चैत्र तथा आश्विन महीनों की शुक्ला सप्तमी से पूर्णिमा तक
आयम्बिल ती तपस्या तथा नवपद की पूजा की जाती है। हमारे समाज में "सिद्ध-चक्र" का नाम विक्रम की बारहवीं सदो से प्रचलित है। प्रसिद्ध प्राचार्थ श्री हेमचन्द्र सूरिजी ने अपने शब्दानुशासन की बृहद्वृत्ति में उल्लेख किया है और “अहं' शब्द को “सिद्धचक्र" का बीज बताया है, परन्तु वहाँ पर "सिद्धचक्र' को पंच परमेष्ठी का चक्र कहा है, कि नवपद का। 'नवपद-शब्द' सिद्धचक्र का पर्याय कब बना, यह कहना कठिन है । आचार्य हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती किसी जैनाचार्य ने "सिद्धचक्र" का नामोल्लेख किया हो ऐसा हमारे जानने में नहीं आया। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सब से प्राचीन प्रतिष्ठा कल्प “पादलिप्त प्रतिष्ठा पद्धति" के नन्द्यावर्त में आजकल के 'नवपद' आते अवश्य हैं, परन्तु इनको वहां पर "सिद्धचक्र" अथवा तो 'नवपद' का नाम न देकर 'नन्द्यावर्त' का मध्य भाग माना है। सर्व
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