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४८ :
निबन्ध-निचय
"अष्टावनाहता स्थाप्यास्तृतीये वलये मात् ।
मध्येऽनाहतमष्टाढ्याश्चत्वारिंशच्च लब्धयः ।।७।। - उपर्युक्त श्लोक में ४८ लब्धियों का सूचन है, ये ४८ लब्धियाँ भी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के ग्रन्थों की चीज है, श्वेताम्बर आगमों तथा प्रामाणिक ग्रन्थों में २८ लब्धियों का निरूपण हैं, अड़तालीस का नहीं।
इसमें दिया हुअा लब्धि-प्राप्त महर्षियों का स्तोत्र भी किसी दिगम्बर विद्वान् की कृति है, क्योंकि इसका निरूपण शब्दशः श्वेताम्बर परम्परा को मान्यता से नहीं मिलता।
३. श्वेताम्बर सम्प्रदाय की १५वीं शताब्दी के प्रथम चरण में निर्मित "सिरि सिरिवाल कहा" में "सिद्धचक्र-यन्त्रोद्धार" निर्माण की बात तथा पांच धान्यों से "सिद्धचक्र" के मण्डल की स्थापना करने की बात अवश्य है, परन्तु ये दोनों बातें दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ से ली हुई मालूम पड़ती हैं, क्योंकि श्वेताम्बर जैन परम्परा के प्राचीन तथा मध्यकालीन ग्रन्थ भाण्डागारों की सूचियों में इस बिधि का नामोल्लेख नहीं मिलता। श्वेताम्बर परंपरा में १७ वीं १८वीं सदी के मध्यभाग में होने वाले प्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा निर्मित “सिद्धचक्र-पूजा" नामक एक छोटी लोक भाषा में बनाई हुई पूजा मिलती है जो "नवपद-पूजा' इस नाम से विशेष प्रसिद्ध है। इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में सोलहवीं तथा सत्तरहवीं शताब्दी के अनेक विद्वान् भट्टारकों, ब्रह्मचारियों ने लगभग "लघु-सिद्धचक्र-यन्त्रोद्धार पूजा" "सिद्धचक्र बृहत्पूजा” और “सिद्धचक्र-महापूजा" आदि सिद्ध चक्र के पूजा विधान बनाये थे, ऐसा दिगम्बरीय साहित्य पढने से ज्ञात होता है ।
___४. "लघु-सिद्ध चक्र-यन्त्रोद्धार पूजा" के कर्ता भट्टारकजी का नाम याद नहीं है, परन्तु वे सत्रहवीं सदी के विद्वान् निश्चित थे "सिद्धचक्रयन्त्र" और "बृहसिद्धचक्रपूजा पाठ" के कर्ता बुध वीरु (वीर) हुए है, इन्होंने विक्रम संवत् १५८६ में इस पूजा-पाठ की रचना की थी। ये गृहस्थ विद्वान् थे। "सिद्धचक्र-महापूजा" इसके कर्ता ब्रह्मचारी "श्रुतसागर सूरि" थे। श्रुतसागर
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