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निबन्ध-निचय
"सिद्धचक्र-स्तोत्र' में भी कोई तीन बार “अनाहत" शब्द पाता है। चतुर्थ वलय के पादुका-पूजन के चतुर्थ वलय में “अनाहत" शब्द का प्रयोग हुअा है। देव वन्दन के अन्त में बोले जाने वाले स्तवन में भी अनाहत शब्द का प्रयोग हुआ है । अष्ट प्रकार की पूजा के पाठों पद्यों में "श्रीसिद्धचक्र" को अनाहत कहकर-उसका यजन करने को कहा है । चैत्यवन्दन का स्तवन पूरा होने के बाद प्रार्थनात्मक एक स्तोत्र दिया है, जिसमें वार जगह 'अनाहत शब्द प्रयुक्त हुआ है । प्रार्थना स्तोत्र के बाद आनेवाले 'शान्तिदण्डक" में भी 'अनाहत' शब्द का दो बार उल्लेख पाया है ।
इस प्रकार बार-बार अनाहत शब्द के प्रयोगों से प्रस्तुत अनुष्ठान थोडी बार के लिए “शव सम्प्रदाय के योगियों का अनुष्ठान" सा भासता है, क्यों कि “अनाहत" शब्द शैव योगियों का परिभाषिक शब्द है, जैन परिभाषा का नहीं, प्रचीन जैन सूत्रों तथा मध्यकालीन जैन प्रकरण-ग्रन्थों तथा चरित्रों में इस शब्द की कहीं चर्चा नहीं। प्राचार्य श्रौं हेमचन्द्र सुरिजी ने अपने योगशास्त्र के अन्तिम प्रकाश में सिर्फ एक स्थान पर 'अनाहत' शब्द का प्रयोग देव के रूप में किया है, जो योगियों की परिभाषा है, लगभग १४वीं सदी में योगियों के अनाहत-शब्द को "तान्त्रिकों' ने अपने मन्त्रों तथा स्तोत्रों में प्रयुक्त करना शुरू किया, रहते-रहते जैन साधुओं ने भी इसे अपना लिया। “सिरि सिरि वाल कहा" में भी ,अनाहत' शब्द अनेक स्थान पर पाया है, जैनों में भी श्वेताम्बरों से दिगम्बर भट्टारक इस विषय में अग्रेसर थे, अनाहत शब्द को ही नहीं; अन्य भी अनेक श्रौत-स्मातं तथा पौराणिक पद्धतियों को लेकर अपने ग्रन्थ के ग्रन्थ भर दिये थे, कुछ बातें श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने भी अपनायी अवश्य हैं, इस परिस्थिति पर विचार करने से हमें यही प्रतीत होता है कि अनाहत शब्दों की भर मार वाला यह "सिद्धचक्र-पूजन-विधान" मूल में दिगम्बर कृति होनी चाहिए जिसके आधार पर "सिरि सिरिवाल कहा" तथा प्रस्तुत पूजा-विधान तय्यार किया गया है।
२. यन्त्र-निर्माण की विधि में लब्धियों की चर्चा करने वाला निम्नलिखित श्लोक मिलता है
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