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________________ निबन्ध-निचय के सम्पादकों द्वारा प्रक्षिप्त किये गए हैं। इस पूजा विधान को ध्यान पूर्वक पढने से मुझे जो विचार स्फुरित हुए ने नीचे दिए जाते हैं (१) मेरी दृष्टि में यह पूजा-विधि सर्वांश में न श्वेताम्बर जैन परम्परा की है न दिगम्बर जैन परम्परा की, किन्तु इसमें श्वेताम्बर दिगम्बर जैन मान्यताओं के अतिरिक्त पौरागिणक पद्धति का भी पुट लगा हुआ है, इस बात की सत्यता सिद्ध करने के लिए नीचे कतिपय प्रमागगों का उल्लेख किया जाता है। ग्रन्थ को श्वेताम्बर साबित करने वाले उल्लेख१. पूजन विधि के प्रारम्भ में दिया हुआ “अर्हन्तो भगवन्त इन्द्र महिताः” इत्यादि पद्य इस पूजन विधि का न होकर एक खरतर गच्छ के आचार्य द्वारा निर्मित मंगल स्तुति है । २. "आश्विनस्य सिताष्टम्यां, निर्दोषायां यथाविधि । कृत्वा श्रीसिद्धचक्रार्चामाद्याचाम्लो विधीयते ॥ २ ॥ इस श्लोक में सिद्धचक्र की तपस्या का प्रारम्भ आश्विन शुक्ला अष्टमी से प्रारम्भ करने का विधान किया है और पूर्णिमा के बाद नवम प्रायम्बिल करने का विधान किया है और इसके बाद के दो श्लोकों में साढ़े चार वर्षो में इकासी ग्रायम्बिल पूरे करके तप का उद्यापन करने का उपदेश किया है, लथा उद्यापन में जमीन पर पांच रंग के धान्यों से "सिद्ध चक्र" के मण्डल के पालेखन को बात कही है । उपर्युक्त विधान “सिरि सिरिवालकहा" का संस्कृत रूपान्तर मात्र है, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में आज कल प्रचलित "सिद्धचक्र तपो-विधान" से हूबहू मिलता है । फरक इतना ही है कि आज कल "सिद्धचक्र प्रायम्बिल' तप आश्विन शुक्ला सप्तमो से शुरू होते हैं। उपाध्याय विनयविजयजी द्वारा प्रारब्ध और यशोविजयजी द्वारा पूरित "सिद्धचक्र रास" निर्माण के समय में अर्थात् विक्रम की १८ वीं शताब्दी के द्वितीय चरण में सप्तमी का दिन आयंबिल तप में सम्मिलित हो चुका था। इन बातों से ज्ञात होता है कि इस पूजन विधि की प्राथमिक तीन पद्य चतुर्विशतियाँ किसी श्वेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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