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निबन्ध-निचय
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म्बर जैन विद्वान् को कृतियाँ हैं । जो "सिरि सिरि वालकहा' को प्राकृत गाथाओं के आधार से बनाई गई हैं।
वीरविजयजी कृत "स्नात्र-पूजा” पढ़ाने की सूचना मादि ये सभी प्रमाण निश्चित रूप से इस विधान की प्राधुनिकता और श्वेताम्बरीयता प्रमाणित करते हैं।
३. तृतीय चतुर्विंशतिका के पद्य १५ वें तथा १६ वें में क्रमशः “सिद्ध - चक्र" के प्रथम तथा द्वितीय पद के आराधकों के नामोल्लेख किये हैं। वे नाम भी “सिरि सिरिवाल कहा" की मान्यता के ही अनुरूप हैं, इससे चतुर्विशतियों के श्वेताम्बर प्रणीत होने की हमारी मान्यता विशेष दृढ हो जाती है।
४. पूजा के बाद दी हुई देववन्दन विधि आधुनिक श्वेताम्बरीय विधि है, और देव वन्दन के प्रारम्भ में चैत्य वन्दन के स्थान पर बोलने के लिए "जो धुरि सिरि अरिहन्त मूल दढ पीठ पइट्ठियु०" एक अपभ्रंश भाषा का पद्य लिखा है, वह भी “सिरि सिरिवाल कहा" का ही है।
५. "सिद्धचक्र महापूजा" में दिया हुआ पूजा-विधान विक्रम की १६ वीं सदी के पहले का नहीं, अष्टप्रकारी पूजा के जो अष्टप्रकार बताये हैं वे निश्चित रूप से सोलहवीं शती के हैं, क्यों कि इसके पूर्ववर्ती काल में अष्टप्रकारी पूजा में जल-पूजा का नम्बर पाठवां था, तब प्रस्तुत पूजन में जलपूजा को सर्व प्रथम रखा है, इससे स्पष्ट हो जाता है, कि यह पूजा-विधान १७वों सदी के पहले का नहीं हो सकता ।
६. “ॐ असि आ उ सा द ज्ञा चा ते भ्यो नमः" विधान लेखक ने इसको "सिद्धचक्र" का मूल-मन्त्र बतलाया है, कोई ४००-५०० वर्षों से पंच परमेष्ठी के नामों के आद्याक्षरों को लेकर श्वेताम्बर तथा दिगम्बर शिथिलाचारी प्राचार्यों ने "असि आ उ स य नमः" इस प्रकार का मन्त्र बनाकर लोगों को दिया था तब “सिद्धचक्रमहापूजा” विधान लेखक ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, शब्दों के आद्याक्षरों को उक्त संक्षिप्त मंत्र के पीछे जोडकर "सिद्धचक्र"
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