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निबन्ध-निचय
किया, यह एक अज्ञेय समस्या है। सिद्ध चक्र का स्थान-स्थान पर ध्यान करने का लिखा है। कथा की भूमिका में भी गौतम स्वामी के मुख से सिद्ध चक्र का ध्यान करने का उपदेश दिलाया है। इस परिस्थिति में "सिद्ध चक्र" यन्त्र के साथ देव-देवियों का जमघट कितना असंगत और अप्रस्तावित है, इस बात को पाठक स्वयं समझ सकेंगे।
“सिद्धचक्र-यन्त्र' के सम्बन्ध में हमारा तो मन्तव्य यह है कि कथाकार श्री रत्नशेखर सूरि को किसी दिगम्बर विद्वान् की यन्त्रोद्धारविषयक कृति हाथ लगी है कि जिसके आधार से उक्त यन्त्रोद्धार विधि
और आगे दी जाने वाली, उद्यापन विधि अपनी कथा में दाखिल कर गुड़गोबर कर दिया है, क्योंकि यन्त्र में निदिष्ट अड़तालीस लब्धियाँ श्वेताम्बर जैनों की नहीं, किन्तु दिगम्बरों के घर की चीज हैं। चार द्वारपाल तथा कपिल और पिंगल ये वीर भी श्वेताम्बर जैन-शास्त्र में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते।
(३) सिद्धचक्राराधन-तप का उद्यापन :
कथालेखक श्री रत्नशेखर सूरि श्रीपाल को पैत्रिक राज्य प्राप्त हो जाने के बाद फिर नवपद का तपोविधान करवा के साढ़े चार वर्ष में तप पूरा होने पर अपने वैभव के अनुसार विस्तार पूर्वक तप का उद्यापन करवाते हैं, जिसका सांक्षिप्त सार निम्नलिखित है--
"उसके बाद राजा ने अपनी राज्य-शक्ति और वैभव के अनुसार विस्तार पूर्वक तप-उद्यापन का कार्य प्रारम्भ किया। एक विस्तीर्ण भूमि भाग वाले जिनमन्दिर में तीन वेदिकायुक्त विशाल पीठ बनवाया, उस पीठ पर मन्त्रपवित्रित शालिप्रमुख पंचवर्ण वाले धान्यों से "सिद्धचक्र" का मण्डल निर्माण कराया और सामान्य रूप से अरिहन्तादि नवपदों के स्थान पर घृत खांड युक्त नारियल के नव गोले रखें। फिर राजा श्रीपाल ने अपने वैभव के अनुरूप उन स्थानों पर विशेष प्रकार से गोलक चढ़ाये, जिन में अरिहन्त के पद पर चन्दन कपूर से विलिप्त आठ कर्केतन रत्न तथा,
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