SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निबन्ध-निचय को और आग्नेयादि चार विदिशाओं में सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-चरित्र-तप इन चार पदों का विन्यास करो और इसी द्वितीय वलय में अष्टवर्गात्मक वर्णमातृका को लिखो और आठों स्थानों में 'अनाहतों' का आलेख कर इन पाठ पदों का भी ध्यान करो। द्वितीय वलय के बाहर तीसरा वृत्त खींचो और उसमें ४८ (अडतालीस) लब्धियों के नाम लिखकर उनका चिन्तन करो । उन लब्धि-पदों के आदि में "ॐ अहं नमो चिनेभ्यः" ऐसा लिखना चाहिए और लब्धियों के नाम गुरूगम से जानने योग्य हैं। तीसरे वलय को ह्रींकार से त्रिवेष्टित कर उसकी परिधि के बाहर गुरूपादुकाओं को नमन करों। (२)-चक्र को रेखाद्वय से कलशाकृति बनाकर अमृत मंडल की भावना से स्मरण करो, और इसके बाद विजया जम्भादि पाठ देवियों तथा विमलेश्वर प्रमुख अधिष्ठायक सकल देवों का विन्यास कर ध्यान करो। उसको १६ विद्या-देवियों, शासन-देवियों द्वारा सेवित पार्श्वद्वय बताकर मूल भाग में नवग्रहों का, कंठ भाग में नवनिधियों का विन्यास करके चार प्रतिहारों तथा चार वीरों से युक्त तथा दिक्पाल क्षेत्रपालादि से सेवित दिखाकर माहेन्द्र मण्डल पर प्रतिष्डित बनाओ। यह सिद्धचक्र यन्त्र विद्याप्रवाद पूर्व का सार है । इसके जानने से महती सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। इस श्वेत उज्जवल वर्णमय सिद्धचक्र यन्त्र का जो भाव से ध्यान करता है, वह विपुल कर्म जिर्जरा को प्राप्त करता है।" (३)-कथाकार ने “सिद्धचक्र यन्त्र" के तीन वलयों का निरूपण कर यन्त्र को हींकार के ईकार द्वारा त्रिवेष्टित करके समाप्त कर दिया है, क्योंकि 'यन्त्र' के 'ह्रींकार वेष्टित' हो जाने के बाद उसके बाहर कोई भी वलय लगाया नहीं जाता । कहीं-कहीं चार कोणों में चार गुरू पादुकाएँ तो कहीं-कहीं चार महेन्द्रादि मंडल आलेखे हुए अवश्य दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु इनके लिए वलय नहीं बनाया जाता। कथालेखक ने भी गुरूपादुकादि के बाहर वृत्त खींचने का नहीं लिखा। इस स्थिति में कथालेखक ने यन्त्र बाहर जयाजम्भादि, रोहिणी-प्रज्ञध्यादि, विमलेश्वरादि अधिष्ठायकशासन देव-देवी, द्वारपाल वीर क्षेत्रपाल दिक्पाल ग्रह आदि देवों का सम्मेलन क्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy