SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निबन्ध - निचय इस कथापीठ में ही लेखक ने गौतम गणधर के मुख से दान शीलादि चतुर्विध धर्म तीर्थङ्करभाषित हैं, कहलाकर अन्त में भाव-धर्म की प्रधानता बतलाई है और वे भाव को स्थिर रखने के लिए उसका आलम्बन "नवपदात्मक - सिद्धचक्र" को बताते हैं । कहते हैं-भाव का क्षेत्र मन है और मन दुर्जेय है, अतः उसको स्थिर करने के लिए ध्यान की आवश्यकता है। ध्यान के प्रालम्बन से मन को स्थिर करके भाव की वृद्धि करना चाहिए । यद्यपि जगत् में ध्यान के प्रालम्बन अनेक हैं, तथापि तीर्थङ्कर भगवान् ने नवपदों को ध्यान का प्रधान ग्रालम्बन बताया है । प्रकार लेखक कथापीठ बनाकर श्रीपाल कथा का आरम्भ करते हैं । कथाभूमिका और कथापीठ के पढ़ने से तो पाठक को यही प्रभास मिलता है कि लेखक किसी अच्छे प्राध्यात्मिक ग्रन्थ का प्रारम्भ कर रहे हैं, परन्तु कथा प्रारम्भ होने के बाद थोड़े ही समय में उन्हें तथा श्रोताओं को ज्ञात हो जाता है कि ग्रन्थ आध्यात्मिक नहीं किन्तु कर्मसिद्धान्त का महत्त्व प्रतिपादन करने वाली एक ग्राख्यायिका है । आरम्भिक वक्तव्य का उद्देश्य अन्त तक निभाना यह अच्छे लेखक का लक्षण है। इस कथा में ऐसा प्रतिज्ञा - निर्वाह नहीं हुआ, इससे कथा का आदि लेखक अच्छा विद्वान् नहीं जान पड़ता । (२) सिद्धचक्र-यन्त्रोद्धार : कथानायिका मदनसुन्दरी और उसका पति श्रीपाल जैन उपाश्रय में धर्मश्रवरणार्थ जाते हैं । धर्मकथा के अन्त में उपदेशक श्री मुनिचन्द्र सूरि मदना को पहिचानते हैं और उसके पास बैठे हुए श्रीपाल के सम्बन्ध में पूछते हैं। गुरु का प्रश्न सुनकर मदना गद्गद कण्ठ से कहती है- भगवन् ! मुझे तो धर्म और कर्म पर विश्वास है, परन्तु अनजान लोग मेरे इन पति की प्राप्ति में जैन धर्म की निन्दा करते हैं । इस बात का मुझे बड़ा दुःख है । कुष्ट रोगग्रस्त श्रीपाल को देखकर आचार्य मदना के मनोभाव को समझ गए और बोले- बहून ! मन्त्र तन्त्र तथा औषध - भैषज्य करना कराना जैन श्रमण के प्रचार से विरुद्ध है, इसलिए मैं तुम्हें एक निर्दोष यन्त्र बताता हूं, जो इस लोक तथा परलोक अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, के सुखों का मूल है। जो सम्यम् - दर्शन, सम्यग् -ज्ञान, Jain Education International : ३५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy