SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ : निबन्ध-निचय नहीं की है जितनी कि श्राज़कल के हमारे विद्वान् समझते हैं। जिनवल्लभ गरण पर पिछले खरतर - गच्छीय लेखकों ने अनेक बातें थोपकर जितना अन्य गच्छीय विद्वानों की दृष्टि से गिराया है उतना और किसी ने नहीं, इसलिए हम विद्वान् लेखकों को सावधान कर देना चाहते हैं कि जिनवल्लभ सूरि को क्रान्तिकार समझ कर उनसे डरने की कोई आवश्यकता नही है । उनके ग्रन्थों पर अन्य गच्छीय विद्वानों ने टीका-विवरण आदि लिखे हैं । इसका कारण भी यही है कि वे ऐसे नहीं थे जैसा कि ग्राजकल हम लोग मान बैठे हैं । "पिण्डविशुद्धि" की अन्त्य गाथा में जिनवल्लभजी ने अपने नाम के साथ गरि शब्द लिखा है, इससे निश्चित है कि उनको देवभद्र की तरफ से प्राचार्य पदवी प्राप्त होने के पहले की यह कृति है । पिण्डविशुद्धि के टीकाकर्त्ता प्राचार्य श्री चन्द्र सूरि ने अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया है। निशीथ सूत्र के बीसवें उद्देशक की व्याख्या, सुबोधासामाचारी, निरयावलिकासूत्र की व्याख्या यदि आपके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं । अन्य ग्रन्थों की भाषा की अपेक्षा से इस टीका में आपने कुछ सुगमता की तरफ लक्ष्य रखा है । इसी के परिणामस्वरूप प्रापकी टीका में कई जगह देश्य शब्दों के प्रयोग दृष्टिगोचर होते हैं। टीका विषय का स्पष्टीकरण करने में बहुत ही उपयोगी बनी है । ग्रन्थ का श्लोकप्रमाण ४४०० जितना विस्तृत है । कई स्थानों पर मौलिक दृष्ठान्त भी दिए गए हैं । खास करके प्रसिद्ध आचार्य श्री पादलिप्त सूरि का वृत्तान्त प्राकृत भाषा में दिया है, जो मौलिक वस्तु प्रतीत होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only फ्र www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy