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निबन्ध-निचय
विरुद्ध बातें भी लिखीं और चित्तौड़ में जाकर महावीर के गर्भापहार की घटना को कल्याणक माना। चतुष्पट मुखवस्त्रिका रखने की कल्पना भी उसके बाद की है। फिर भी जिनवल्लभ ने विशेष प्रचलित परम्पराओं में रद्दोबदल नहीं किया, यह बात उनके ग्रन्थों से जानी जा सकती है।
संघ-पट्टक, षडशीतिक प्रकरण जिसका दूसरा नाम “आगमिक वस्तुविचारसार" है और जिस पर संवत् ११७३ में आचार्य हरिभद्र सूरिजी ने एक वृत्ति लिखी है, जिसका श्लोकप्रमाण ८५० है। सार्द्धशतक अपरनाम "सूक्ष्मार्थ विचारसार" है इस पर भी सं० ११७२ के वर्ष में प्राचार्य हरिभद्र सूरिजी ने एक वृत्ति बनाई है और उसका श्लोकपरिमाण भी ८५० है। सार्द्धशतक पर दूसरी टीका आचार्य धनेश्वर सूरि की है जिसका श्लोकपरिमाण ३७०० है और इसका निर्माण ११७१ में हुआ है। द्वादश कुलक, भावारिवारणस्तोत्र आदि जिनवल्लभीय ग्रन्थों में केवल “संघ-पट्टक' में ही कुछ कटु और प्रचलित परम्परा का विरोध करने वाली बातें मिली हैं, शेष ग्रन्थों में आगम-विरुद्ध कोई बात दृष्टिगोचर नहीं हुई। इनके एक प्रकरण में “संहनन” की “संघयणं सत्ति विसेसो” इन शब्दों में जिनवल्लभ गरिण ने व्याख्या की है, इसका कई विद्वान् विरोध करते हैं, कि यह व्याख्या शास्त्रविरुद्ध है, क्योंकि शास्त्र में “संहनन” को “अस्थिरचनाविशेष" बताया है, शक्ति विशेष नहीं, यह बात हम मानते हैं कि शास्त्र में अस्थिरचनाविशेष को ही “संहनन' लिखा है, परन्तु "जिनवल्लभ" का संहनन सम्बन्धी उल्लेख भी निराधार नहीं है।
प्रसिद्ध श्रुतधर श्री हरिभद्र सूरिजी ने भी अपने एक ग्रन्थ में देवताओं को लक्ष्य करके संहनन का अर्थ “शक्तिविशेष" किया है। उनका कथन है कि भले ही देव अस्थिर स्नायु की अपेक्षा से असंहननी हों, परन्तु शक्तिरूप संहनन उनमें भी है । अन्यथा उनके शरीर से कोई भी प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी? श्री जिनवल्लभ गणि ने श्री हरिभद्र सूरिजी के कथन का ही अनुसरण करके उपर्युक्त "संहनन" की व्याख्या की है, अत: इस उल्लेख से जिनवल्लभ गणि को उत्सूत्रभाषी नहीं कह सकते । वस्तुतः श्री जिनवल्लभ गणि ने प्रचलित जैन परम्पराओं में इतनी तोड़फोड़
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