________________
निबन्ध-निचष
ऊपर के विवरण से पाठकगण समझ सकते हैं कि श्री जिनवल्लभ गरिग के समय में "खरतर" शब्द व्यवहार में भी नहीं आया था, तब तत्कालीन अपने पूर्वज प्राचार्यों को खरतर कहने वाले लेखक कहां तक सत्यवादी हो सकते हैं ?
अब रही जिनवल्लभ गरिणजी के ग्रन्थों की बात, हमारे कतिपय विद्वान् लेखक शिकार त करते हैं कि जिन्यालभ गणि ने कई बातों में उत्सूत्र प्ररूपणा की है, परन्तु इस विषय में हम सहमत नहीं हो सकते। यथोपलब्ध जिनवल्लभ गणि के ग्रन्थों को हमने पढ़ा है, परन्तु उनमें उत्स्त्र प्ररूपणा जैसी कोई बात दृष्टिगोचर नहीं हुई। "सघपट्टक" में जिनवल्लभ ने कटु शब्दों में तत्कालीन पाटन के जैन संघ की आलोचना की है अवश्य । संघ बहिष्कृत होने के बाद इन्होंने सर्वप्रथम “संघपट्टक" ही बनाया है और पट्टक के अन्तिम"सम्प्रत्यप्रतिमे कुसंघवपुषि प्रोज्जृम्भिते भस्मक
म्लेच्छातुच्छ बले दुरन्त दशमाश्चर्ये च विस्फूर्जति । प्रौढिं जग्मुषि मोहराजकटके लौकैस्तदाज्ञापरै
रेकीभूय सदागमस्य कथयाऽपीत्थं कदामहे ॥४०॥ इस पद्य के चतुर्थ चरण में विन्यस्त शब्द “कदमिहे" उनको संघ बहिष्कृति द्वारा कथित करने की सूचना करता है, और कर्थित मनुष्य उत्तेजित होकर जो कुछ बोले-लिखे उसे क्षन्तव्य मानना चाहिए। “संघपट्टक' में लिखी हुई अधिकांश बातें सत्य हैं, फिर भी पर्युषणा तिथि के सम्बन्ध में उन्होंने जो अपना अभिप्राय व्यक्त किया है, वह उत्तेजना का फल मात्र है। उत्तेबिन मनुष्य सत्य बातों के साथ कुछ अयोग्य बातें भी कह देता है। जिनवल्लभ गणि के सम्बन्ध में ऐसा ही हुआ है। जब तक वे पाटण में थे और धार्मिक संस्थानों में होने वाली अविधियों तथा मठमति शिथिलाचारी साधुओं के शिथिलाचार की टीका-टिप्पणियां करते रहे, परन्तु जब उन्हें संघ से बहिष्कृत किया गया और गुजरात की सीमा तक छोड़नी पड़ी तब उन्होंने क्रोधावेश में “संघ-पट्टक" में कुछ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org