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निबन्ध-निचय
: २६ संवत् १३७८ तक के जिनकुशल सूरिजी के किसी भी लेख में 'खरतर' अथवा “खरतर गच्छ” शब्द दृष्टिगोचर नहीं होते । हमारे पास श्री जिनचन्द्र सूरि शिष्य श्री जिनकुशल सूरि द्वारा पाटण के श्री शान्तिनाथ-विधिचैत्य में संवत् १३७० में प्रतिष्ठित श्री महावीर तथा श्री पद्मप्रभ जिनबिम्बों प्रतिष्ठालेख उपस्थित हैं । परन्तु उनमें अथवा उनके पूर्ववर्ती श्री जिनकुशल सूरिजी के किसी भी शिला-लेख में अपने नाम के साथ “खरतर गच्छ” शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। परन्तु सं० १३८१ से आपने भी प्राचीन परिपाटी बदलकर अपने नाम के साथ "खरतर-गच्छीय' विशेषरण लिखने की परिपाटी प्रचलित कर दी थी, जो शत्रुजय के एक शिललेख से ज्ञात होता है। वह शिलालेख नीचे उद्धृत किया है
“संवत् १३८१ वर्षे वैशाख वदि ५ गुरौ वारे खरतर-गच्छीय श्री जिनकुशल सूरिभिः श्री नमिनाविबं प्रतिष्ठितं........ कारितं......... देवकुल........ श्री मद्देवगुर्वाज्ञाचिंतामणिविभूषितमस्तकेन........." ।
ऊपर के शिलालेखों से सिद्ध होता है, कि “खरतर" शब्द प्रारम्भ में केवल श्री जिनदत्त सूरिजी का विशेषण मात्र था, परन्तु धीरे धीरे उनके अनुयायियों ने भी उसे अपनाया । पहले वे अपने को “चन्द्रकुलीन" अथवा "चन्द्र-गच्छीय' मानते थे, परन्तु चन्द्रकुल अथवा चन्द्रगच्छ साधारण व्यापक नाम थे। लगभग सभी गच्छ वाले अपने को चन्द्रकुलीन कहते थे। उस समय विशेष महत्त्व गच्छ शब्द का था, कुल शब्द केवल दिग्बन्ध के समय याद किया जाता था। प्राचीन चैत्यवासी और पौर्णमिक, आंचलिक, नवीन सुधारक श्रमण सम्प्रदाय अपने अपने समूह को गच्छ के नाम से प्रसिद्ध करते थे। इस परिस्थिति में श्री जिनदत्त सूरि के अनुयायियों ने भी अपने सम्प्रदाय को “खरतर-गच्छ” के नाम से प्रकाश में लाना ठीक समझा और विक्रम के पन्द्रहवें शतक के अन्त तक "खरतरगच्छ” नाम सर्वव्यापक हो गया।
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