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निबन्ध-निचय
“सं० १३०८ वर्षे फाल्गुन वदि ११ शुक्रे श्री जावालिपुरवास्तव्य चन्द्र-गच्छीय खरतर सा० दूलह सुत संधीरण तत्सुत सा० वीजा तत्पुत्र सा० सलषणेन पितामही राजू, माता साऊ, भार्या माल्हणदेवि सहितेन श्री आदिनाथ सत्क सर्वांगाभरणस्य साउ० श्रेयोऽर्थं जीर्णोद्धारः कृतः ॥"
उपर्युक्त लेख जालौर के एक सद्गृहस्थ का है, जिसका नाम सलखण था। वह अपने को चन्द्र-गच्छीय खरतर मानता था। उसने आबू पर के विमलदसहि के श्री आदिनाथजी को पहनाने के आभूषणों का जीर्णोद्धार सं० १३०८ के फाल्गुन वदि एकादशी शुक्रवार के दिन करवाया था, जिसकी याद में उपर्युक्त लेख खुदवाया था ।
हमारे पड़े हुए “खरतर" नाम के प्रयोग वाले लेखों में ऊपर का लेख सब से प्राचीन है।
उक्त लेख में “खरतर" शब्द ही उल्लिखित है, परन्तु इसके बाद ५० वर्ष के उपरान्त "खरतर" शब्द के साथ "गच्छ” शब्द लिखने का भी प्रारम्भ हो गया था। श्री जिनप्रबोध सूरिजी के शिष्य श्री दिवाकराचार्य अपने परिवार के साथ आबू तीर्थ की यात्रार्थ गए। तब निम्न लेख अपनी यात्रा के स्मरणार्थ लिखवाकर गए थे, जो नीचे दिया जाता है
“संवत् १३६० आषाढ़ वदि ४ श्री खरतर गच्छे श्री जिनेश्वर सूरि पट्टनायक श्री जिनप्रबोध सूरि शिष्य श्री दिवाकराचार्या: पंडि० लक्ष्मीनिवास गणि-हेमतिलक गणि-मतिकलश मुनि-मुनि चन्द्रमुनिअमररत्न गणि-यशःकीर्ति मुनि-साधु-साध्वी चतुर्विध श्री विधिसंघसहिताः श्री आदिनाथ श्री नेमिनाथ देवाधिदेवौ नित्यं प्रणमंति ॥"
संवत् १३०८ के लेख में एक गृहस्थ के नाम के आगे "चन्द्रगच्छीय खरतर" ये शब्द लिखे थे, परन्तु लगभग ५० वर्ष में "चन्द्रकुल, चन्द्रगच्छ” जो पहले सार्वत्रिक रूप से लिखे जाते थे उनका प्रचार कम हुआ और “खरतर" शब्द के आगे “गच्छ” शब्द लिखा जाने लगा और आचार्य तथा श्रमणों के नामों के साथ उसका प्रयोग होने लगा ।
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