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निबन्ध-निचय
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सूरि तक के विस्तृत चरित्र दिए हैं, परन्तु किसी आचार्य को "खरतर" बिरुद प्राप्त होने की बात नहीं लिखी। सुमति गणिजी ने प्राचार्य जिनदत्त सूरि के वृत्तान्त में ऐसा जरूर लिखा है कि जिनदत्त सूरि स्वभाव के बहुत कड़क थे, वे हर किसी को कड़ा जवाब दे दिया करते थे। इसलिए लोगों में उनके स्वभाव की टीका-टिप्पणियाँ हुआ करती थीं। लोग बहुधा उन्हें 'खरतर' अर्थात् कठोर स्वभाव का होने की शिकायत किया करते थे। परन्तु जिनदत्त जन-समाज की इन बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं देते थे। धीरे धीरे जिनदत्त सूरिजी के लिए "खरतर" यह शब्द प्रचलित हुअा था, ऐसा सुमतिगणि कृत "गणधरसार्द्धशतक" की टीका पढ़ने वालों की मान्यता है यद्यपि “खरतर" शब्द का खास सम्बन्ध जिनदत्त सूरिजी से था, फिर भी इन्होंने स्वयं अपने लिये किसी भी ग्रन्थ में “खरतर" यह विशेषण नहीं लिखा । जिनदत्त सूरिजी तो क्या इनके पट्टधर श्री जिनचन्द्र, इनके शिष्य श्री जिनपति सूरि, जिनपति के पट्टधर जिनेश्वर सूरि और जिनेश्वर के पट्टधर जिनप्रबोध सूरि तक के किसी भी प्राचार्य ने "खरतर" शब्द का प्रयोग अपने नाम के साथ नहीं किया। वस्तुस्थिति यह है कि विक्रम की चउदहवीं शती के प्रारम्भ से खरतर शब्द का प्रचार होने लगा था। शुरु शुरु में वे अपने को "चन्द्रगच्छीय" कहते थे, फिर इसके साथ “खरतर" शब्द भी जोड़ने लगे। इसके प्रमाण में हम आबू देलवाड़ा के जैन मन्दिर का एक शिलालेख उद्धृत करते हैं।
** "The Kbaratara seet then arose according to on old gatha in samavat 1204 Jinadatta was a proud man, and even in his pert answer to others mentioned by Sumatigani pride can be clearly datected. He was therefore, called Kharatara by the people, but he glaried in the new appellation and willingly accepted it."
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