________________
२६ :
निबन्ध-निचय
स्थापित करने का क्या अर्थ हो सकता है ? इस पर पाठकगण स्वयं विचार कर सकते हैं। शास्त्र के आधार से तो कोई भी प्राचार्य अपनी जीवित अवस्था में ही अपना उत्तराधिकारी प्राचार्य नियत कर देते थे। कदाचित् किसी प्राचार्य की अकस्मात् मृत्यु हो जाती तो उसकी जाहिरात होने के पहले ही गच्छ के गीतार्थ अपनी परीक्षानुसार किसी योग्य व्यक्ति को आचार्य के नाम से उद्घोषित करने के बाद मूल प्राचार्य के मरण को प्रकट करते थे। कभी कभी आचार्य द्वारा अपनी जीवित अवस्था में नियत किये हुए उत्तराधिकारी के योग्यता प्राप्त करने के पहले ही मूल आचार्य स्वर्गवासी हो जाते तो गच्छ किसी अधिकारी योग्य गीतार्थ व्यक्ति को सौंपा जाता था। जिनवल्लभ गणी के पीछे न परिवार था न गच्छ की व्यवस्था, फिर इतने लम्बे समय के बाद उन्हें आचार्य बनाकर अभयदेव सूरिजी का पट्टधर क्यों उद्घोषित किया गया ? इसका खरा रहस्य तो आचार्य श्री देवभद्र जानें, परन्तु हमारा अनुमान तो यही है कि जिनवल्लभ गणी की पीठ थपथपाकर उनके द्वारा पाटण में उत्तेजना फैलाकर वहां के संघ द्वारा गरिणजी को संघ से बहिष्कृत करने का देवभद्र निमित्त बने थे, उसी के प्रायश्चित्त स्वरूप देवभद्र की यह प्रवृत्ति थी।
अब रही जिनवल्लभ गणी के खरतर-गच्छीय होने की बात, सो यह बात भी निराधार है। जिनवल्लभ के जीवन पर्यन्त “खरतर" यह नाम किसी भी व्यक्ति अथवा समुदाय के लिए प्रचलित नहीं हया था। आचार्य श्री जिनेश्वर सूरि, उनके गुरु-भाई बुद्धिसागर सूरि तथा उनके शिष्य जिनचन्द्र सूरि तथा अभयदेव सूरि अादि की यथोपलब्ध कृतियाँ हमने पढ़ी हैं। किसी ने भी अपनी कृतियों में खरतर शब्द का प्रयोग नहीं किया। श्री जिनदत्त सूरि ने, जो जिनवल्लभ सूरि के पट्टधर माने जाते हैं, अपनी “गणधरसार्द्धशतक" नामक कृति में पूर्ववर्ती तथा अपने समीपवर्ती प्राचार्यों की खुलकर प्रशंसा की है, परन्तु किसी भी प्राचार्य को खरतर पद प्राप्त होने की सूचना तक नहीं की। जिनदत्त सूरि के "गणधर सार्द्धशतक" की बृहद्वृत्ति में, जो विक्रम सं० १२६५ में श्री सूमति गरिण द्वारा बनाई गई है, उसमें श्री वर्धमान सूरि से लेकर आचार्य श्री जिनदत्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org