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निबन्ध-निचय
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जारी रक्खा। भिन्न-भिन्न विषयों पर निबन्धों के रूप में प्राकृत भाषा में "कुलक" लिखकर अपने परिचित स्थानों में उनके द्वारा धार्मिक प्रचार करते ही रहे। कुलकों के पढ़ने से ज्ञात होता है कि उस प्रदेश में जाने के बाद जिनवल्लभ गणि ने अपने उपदेशों की भाषा साधारण रूप से बदल दी थी, पाटण में चेत्यवासियों का खण्डन करने में जो उग्रता थी, वह बदल चुकी थी। इतना ही नहीं “समय देखकर लिंगमात्र धारियों का भी सन्मान करने की सलाह देते थे"। विद्वत्ता तो थी ही, चारित्रमार्ग अच्छा पालते थे और उपदेशभक्ति भी अच्छी थी, परिणाम स्वरूप बागड़ आदि प्रदेशों में आपने अनेक गृहस्थों को धर्ममार्ग में जोड़ा ।
उधर आचार्य देवभद्र और उनकी पार्टी के मन में जिनवल्लभ का आचार्य बनाने की धुन लगी हुई थी। पाटण के जैन संघ में भी पौर्णमिक तथा पांचलिक गच्छों की उत्पत्ति तथा नई प्ररूपणाओं के कारण अव्यवस्था बढ़ गई थी, परिणाम स्वरूप प्राचार्य देवभद्र की जिनवल्लभ को चित्तौड़ जाकर प्राचार्य बनाने की इच्छा उग्र बनी । कतिपय साधुनों को, जो उनकी पार्टी में शामिल थे, साथ में लेकर मारवाड़ की तरफ विहार किया
और जिनवल्लभ गणी, जो उस समय नागोर की तरफ विचर रहे थे, उन्हें चित्तौड़ आने की सूचना दी और स्वयं भी मारवाड़ में होते हुए चित्तौड़ पहुंचे और उन्हें प्राचार्य पद देकर प्राचार्य अभयदेव सूरि के पट्टधर होने की उद्घोषणा की। इस प्रकार प्राचार्य देवभद्र की मण्डली ने अपनी चिरसंचित अभिलाषा को पूर्ण किया ।
श्री जिनवल्लभ गणी को आचार्य बनाकर अभयदेव सूरिजी के पट्ट पर स्थापित करने का वृत्तान्त ऊपर दिया गया है। यह वृत्त खरतर गच्छ की पट्टावलियों के आधार से लिखा है। अब देखना यह है कि अभयदेव सूरिजी को स्वर्गवासी हुए अट्ठाईस वर्ष से भी अधिक समय हो चुका था, श्री अभयदेव सूरिजी के पट्ट पर श्री वर्धमान सूरि, श्री हरिभद्र सूरि, श्री प्रसन्नचन्द्र सूरि और श्री देवभद्र सूरि नामक चार प्राचार्य बन चुके थे, फिर अट्ठाईस वर्ष के बाद जिनवल्लभ गणी को उनके पट्ट पर
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