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निबन्ध-निचय
चुकी थी, वहाँ भी इनके व्याख्यानों में आने से लोग हिचकिचाते थे। थोड़े समय के बाद गणीजी वापस पाटण पाए और अपने हितचिन्तकों से कहा-गुजरात में फिरने से तो अब विशेष लाभ न होगा। गुजरात को छोड़कर अब किसी दूसरे देश में विहार करने का निर्णय किया, उनके समर्थकों ने बात का समर्थन किया, प्राचार्य देवभद्र ने जिनशेखर को, जो जिनवल्लभ का गुरु भाई था, जिनवल्लभ के साथ जाने की आज्ञा दी। परन्तु जिनशेखर ने संघ बाहर होने के भय से जिनवल्लभ गणी के साथ जाने से इन्कार कर दिया, प्राचार्य देवभद्र जिनशेखर के इस व्यवहार से बहुत ही नाराज हुए तथापि जिनशेखर ने अपना निर्णय नहीं बदला और जिनवल्लभ गरणी को गुजरात छोड़कर उत्तर की तरफ अकेले विहार करना पड़ा। मरुकोट होते हुए वे चातुर्मास्य आने के पहले चित्तौड़ पहुंचे। यद्यपि बीच में मारवाड़ जैसा लम्बा-चौड़ा देश था और कई बड़े २ नगर भी थे, परन्तु जिनवल्लभ गणी का पाटण में जो अपमान हुआ था, उसकी हवा सर्वत्र पहुंच चुकी थी। चित्तौड़ में भी जैनों की पर्याप्त बस्ती थी और अनेक उपाश्रय भी थे, इसपर भी उन्हें चातुर्मास्य के योग्य कोई स्थान नहीं मिला। खरतरगच्छ के लेखक उपाश्रय आदि न मिलने का कारण चैत्यवासियों का प्राबल्य बताते हैं, जो कल्पना मात्र है । चैत्यवासी अपनी पौषधशालाओं में रहते थे और चैत्यों की देखभाल अवश्य करते थे, फिर भी वैहारिक साधु वहाँ जाते तो उन्हें गृहस्थों के अतिरिक्त मकान उतरने के लिए मिल ही जाते थे। वर्धमान सूरि का समुदाय वैहारिक था और सर्वत्र विहार करता था फिर भी उसको उतरने के लिए मकान न मिलने की शिकायत नहीं थी, तब जिनवल्लभ गणी के लिए ही मकान न मिलने की नौबत कैसे आई ? खरी बात तो यह है कि जिनवल्लभ गणी के पाटण में संघ से बहिष्कृत होने की बात सर्वत्र प्रचलित हो चुकी थी, इसी कारण से उन्हें मकान देने तथा उनका व्याख्यान सुनने में लोग हिचकिचाते थे । इसीलिए जिनवल्लभ गरणी को चित्तौड़ में "चामुण्डा" के मठ में रहना पड़ा था। यह सब कुछ होने पर भी जिनवल्लभ गणी ने अपनी हिम्मत नहीं हारी। चित्तौड़ से प्रारम्भ कर बागड़ तया उत्तर मारवाड़ के खास-खास स्थानों में विहार कर अपना प्रचार
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