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१८ :
निबन्ध-निचय
देवसूरिजी के चारित्रोपसम्पन्न शिष्य नहीं, किन्तु ज्ञानोपसम्पन्न शिष्य थे । जब तक वे अभयदेवसूरि के पास श्रुतोपसम्पदा लेकर पढ़ते रहे तब तक d. अभयदेवसूरिजी के प्रतीच्छक शिष्य के रूप में रहे और आगम-वाचना पूरी करके अभयदेवसूरिजी की आज्ञा से वे अपने मूल गुरु के पास गए तब से वे अपने पूर्व गुरु कूर्च पुरीय गच्छ के आचार्य श्री जिनेश्वरसूरिजी के ही शिष्य बने रहे । इतना जरूर हुआ कि प्रभयदेवसूरि तथा उनके शिष्यों के साथ रहने के कारण वे वैहारिक प्रवश्य बने थे और अन्त तक उसी स्थिति में रहे ।
खरतर गच्छ के पट्टावलीलेखक जिनवल्लभगरणी के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की एक दूसरी से विरुद्ध बातें लिखते हैं । कोई कहते हैं - वे अपने मूल गुरु को मिलकर वापस पाटन आए, और श्री अभयदेव - सूरिजी से उपसम्पदा लेकर उनके शिष्य बने । तब कोई लिखते हैं कि वे प्रथम से ही चैत्यवास से निर्विण्ण थे और अभयदेवसूरिजी के पास श्राकर उनके शिष्य बने, और आगम सिद्धान्त का अध्ययन किया । खरतर गच्छीय लेखकों का एक ही लक्ष्य है कि जिनवल्लभ को श्री अभयदेवसूरि का पट्टधर बनाकर अपने सम्प्रदाय का सम्बन्ध श्री अभयदेव - सूरि से जोड़ देना । कुछ भी हो, परन्तु श्री जिनवल्लभगरणी के कथनानुसार वे अन्त तक कूर्चपुरीय प्राचार्य श्री जिनेश्वरसूरि के ही शिष्य बने रहे हैं, ऐसा इनके खुद के उल्लेखों से प्रमाणित होता है । विक्रम सं० ११३८ में लिखे हुए कोट्याचार्य की टीका वाले विशेषावश्यक भाष्य की पोथी के अन्त में जिनवल्लभगरणी स्वयं लिखते हैं
यह ( १ ) पुस्तक प्रसिद्ध श्री जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभ गणी की है 1
इसी प्रकार जिनवल्लभ गरणी प्रश्नोत्तरशतक नामक अपनी कृति में लिखते हैं कि "जिनेश्वराचार्यजी मेरे गुरु हैं, " यह प्रश्नोत्तरशतक काव्य जिनवल्लभ गरणी ने श्री अभयदेव सूरिजी के पास से वापस जाने के बाद
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