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निबन्ध-निचय
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बनाया था, ऐसा उसी कृति से जाना जाता है क्योंकि उसी काव्य में एक भिन्न पद्य में श्री अभयदेव सूरिजी की भी प्रशंसा की है ।
जिनवल्लभ गरणी के " रामदेव" नामक एक विद्वान् शिष्य थे, जिन्होंने वि० सं० १९७३ में जिनवल्लभ सूरि कृत “ षडशीति-प्रकरण, ” की चूरिंग बनाई है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि जिनवल्लभ गणीजी ने अपने तमाम चित्र काव्य सं० १९६९ में चित्रकूट के श्री महावीर मन्दिर में शिलाओं पर खुदवाए थे और मन्दिर के द्वार की दोनों तरफ उन्होंने धर्म - शिक्षा और संघ - पट्टक शिलाओं पर खुदवाए थे, ऐसा पं० हीरालाल हंसराज कृत "जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास" नामक पुस्तक के ३८ वें तथा ३६ वें पृष्ठ में लिखा है ।
उपाध्याय धर्मसागरजी ने जिनवल्लभ गरणी कृत “प्रष्टसप्ततिका" नामक काव्य के कुछ पद्य " प्रवचन परीक्षा" में उद्धृत किए हैं, उनमें से एक पद्य में श्री अभयदेव सूरिजी के चार प्रमुख शिष्यों की प्रशंसा की है और एक पद्य में उन्होंने श्री अभयदेव सूरिजी के पास श्रुत सम्पदा लेकर अपने शास्त्राध्ययन की सूचना की है । इत्यादि बातों से यही सिद्ध होता है कि जिनवल्लभ गरणी जो कूर्च पुरीय गच्छ के प्राचार्य जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे, वे अपने गुरु की आज्ञा से अपने गुरु भाई जिनशेखर मुनि के साथ आगमों का अध्ययन करने के लिए, पाटन श्री अभयदेव सूरिजी के पास गए थे और उनके पास ज्ञानोपसंपदा ग्रहरण करके सूत्रों का अध्ययन किया था । खरतर गच्छ के पट्टावली लेखक शायद उपसम्पदा का अर्थ ही नहीं समझे, इसलिए कोई उनके पास दीक्षा लेने का लिखते हैं तो कोई " आज से हमारी आज्ञा में रहना' ऐसा उपसम्पदा का अर्थ करते हैं, जो वास्तविक नहीं है । उपसम्पदा अनेक प्रकार की होती है— ज्ञानोपसम्पदा, दर्शनोपसम्पदा, चारित्रोपसम्पदा, मार्गोपसम्पदा आदि । इनमें प्रत्येक उपसम्पदा जघन्य, मध्यम तथा उत्कृष्ट प्रकार से तीन तरह की होती है, ज्ञान तथा दर्शन प्रभावक शास्त्र पढ़ने के लिये ज्ञानोपसम्पदा तथा दर्शनोपसम्पदा दी - ली जाती है, चारित्रोपसम्पदा चारित्र को शुद्ध पालने के भाव से बहुधा ली जाती है और वह प्राय: यावज्जीव रहती है, ज्ञानोपसम्पदा तथा दर्शनोपसम्पदा कम से कम ६ मास
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