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निबन्ध-निचय
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गिरिजी की टीका के विषमार्थ का मैंने विवेचन किया है । अन्त में आपने अपने गच्छपति और गुरु मेरुतुंग सूरिजी को याद किया है, ग्रन्थ के निर्माण - समय आदि के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा है तथापि आचार्य श्री मेरुतुंगसूरि के शिष्य होने के नाते आप विक्रम की पन्द्रहवीं शती के ग्रन्थकार हैं इसमें कोई शंका नहीं रहती । आपके गुरु मेरुतुंगसूरि का समय विक्रमीय पन्द्रहवीं शती का मध्य भाग होने के कारण आपका भी सत्ता समय पन्द्रहवीं शती का उत्तरार्ध है, इसमें शंका को स्थान नहीं है ।
पिण्डविशुद्धि : श्री जिनवल्लभ गरिणकृता विवरणकार श्री चन्द्रसूरि ।
पिण्डविशुद्धिकरण पिण्डनिर्युक्ति का ही संक्षिप्त रूप है । पिण्डनियुक्ति का गाथापरिमाण ६७१ है, तब उसका सारांश लेकर पिण्डविशुद्धि प्रकरण श्री जिनवल्लभ गणीजी ने केवल एक सौ तीन गाथाओं में समाप्त किया है । पिण्डविशुद्धि के ऊपर तीन चार टीकाएं हैं, जिनमें से प्रस्तुत टीका के निर्माता प्राचार्य श्री चन्द्रसूरि हैं, जो वैहारिक आचार्य
श्री शीलभद्रसूरि के प्रशिष्य और धनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे । प्रस्तुत टीका का निर्माण आपने सौराष्ट्र के वेलाकुल नगर देवपाटक अर्थात् प्रभासपाटण में रहते हुए विक्रम संवत् १९७८ के वर्ष में किया है ।
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पिण्डविशुद्धिकार श्री जिनवल्लभ गरिण के सम्बन्ध में जैन श्वेता(म्बर सम्प्रदाय में दो मत हैं- खरतर गच्छ के अनुयायी विद्वान् इनको वांगवृत्तिकार आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी का पट्टधर शिष्य मानते हैं, तब तपागच्छादि अन्य गच्छों के विद्वान् इनको खरतर गच्छ वालों के - जिनवल्लभसूरि से भिन्न मानते हैं। उनका कहना है कि खरतर गच्छ वालों के कथनानुसार प्रस्तुत जिनवल्लभ महावीर के षट्कल्याणक मानने वाले तथा विधिचैत्य आदि नयी परम्पराओं का आविष्कार करने वाले जिनवल्लभ होते, तो इनके ग्रन्थों पर अन्य सुविहित आचार्य टीका विवरण आदि नहीं बनाते ।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की मान्यताओं से हमारा मतभेद है । हमारा मत है कि प्रस्तुत पिण्डविशुद्धिकार जिनवल्लभ श्री अभय
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