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निबन्ध-निचय
है, रजोहरण के भीतर की दंडी उपकरण में परिगणित नहीं है, इसको रजोहरण की उपष्टम्भिका मात्र माना जाता है ।
आचार्य श्री वीरगणी वसतिवासी और वैहारिक चन्द्रगच्छ में चन्द्र समान श्री समुद्रघोष सूरि के शिष्य श्री ईश्वरगणी के शिष्य थे। आपका सरबालक गच्छ था। पिण्डनियुक्ति की यह वृत्ति प्राचार्य श्री वीरगणी ने कर्करोणिका पार्श्ववति वटपद्र ग्राम (बड़ोदा) में रहकर विक्रम सं० ११६० में निर्मित की। इसके निर्माण में ईश्वरगणी के शिष्य आचार्य श्री महेन्द्रसूरि, श्री देवचन्द्र गणी और द्वितीय देवचन्द्र गणी इन तीनों ने आपको अन्य कार्यप्रवृत्तियों से निवृत्त रखकर सहायता की है और अपहिल पाटक नगर में आचार्य श्री नेमिचन्द्रसूरि श्री जिनदत्तसूरि अादि प्राचार्यों ने उपयोगपूर्वक इसका संशोधन किया है। इस पर भी किसी को इसमें कोई दोष दृष्टिगोचर हो तो मेरे पर कृपा कर सुधार दें, ऐसी आपने प्रार्थना की है। इस वृत्ति में ग्रन्थ-प्रमाण ७६७१ श्लोक है। . (३) पिण्डनियुक्ति-दीपिका :
माणिक्यशेखरीय दीपिका के उपोद्घात में टीकाकार लिखते हैं कि आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का पहला और दशवकालिक का पांचवां अध्ययन पिण्डैषणा का निरूपण करता है। इसकी नियुक्ति महार्थक होने से श्री भद्रबाहु ने पृथग् बनाई जो “पिण्डनियुक्ति” के नाम से ही प्रसिद्ध है। दशवैकालिक सूत्र के पंचम अध्ययन की नियुक्ति संक्षिप्ताथिका है, तब यह विस्तृतार्था है, इन कारणों से भी इसका पृथक्करण उपयोगी माना जा सकता है । - दीपिका का बहुत ही अल्प भाग प्राप्त हुया है, अतः इसके सम्बन्ध
में अधिक लिखना अप्रासंगिक है । . दीपिका की समाप्ति करते हुए श्री माणिक्यशेखर ने नियुक्ति के निर्माता श्री भद्रबाहु स्वामी को और इसका विवरण करने वाले श्री मलयगिरिसूरिजी को नमस्कार किया है और लिखा है-आचार्य मलय
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