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________________ निबन्ध-निचय : १५ बहिर्वतिनी, चैवेति समुच्चये, इह सम्प्रति या दशिकादिभिः सह दण्डिका क्रियते सा आगमविधिना केवलैव स्यात्तस्या निषधात्रयं, स्यात्तन्मीलितं रजोहरणं भण्यते तत्रैका दण्डिका यास्तिर्यग्वेष्टकत्रयपृथुत्वैकहस्तदी?ण्णामयादिकंबलीखण्डरूपा स्यात्तस्याश्चाग्रे दशिकाः स्युः, तां च सदशिकामग्रेरजोहरणशब्देन भणिष्यतीत्यसौ नात्र ग्राह्या, द्वितीया त्वेनामेव तिर्यग् बहिर्वेष्टकराच्छादयन्त्येकहस्तविस्तरादि किंचिदधिकैकहस्तदीर्घा वस्त्रमयी स्यात्, साऽत्राऽभ्यन्तरेति ग्राह्या, तृतीया त्वेतस्या एव बहिस्तिर्यग् वेष्टकान् कुर्वती चतुरंगुलाधिकैकहस्तमाना चतुरस्र कंबलमयी स्यात्, सा चाधुनोपवेशनोपकारित्वात्पादप्रोञ्छनकमिति रूढा, दण्डिका तूपकरणसंख्यायां न गण्यते, रजोहरस्योपष्टम्भिका मात्रत्वेन विवक्षितत्वादिति।" . 'पात्र का प्रत्यवतार, उसके परिकर को कहते हैं, और पात्रपरिकर जो पात्रबन्धादिक छः प्रकार का होता है, जिसमें पात्र शामिल नहीं होता; उसे 'पात्रनिर्योग' भी कहते हैं, तथा दो निषद्याएं और रजोहरण जो उपकरण विशेष होता है उसका स्वरूप इस प्रकार का होता है, ऊपर जो दो निषद्याएं कहीं हैं, उनमें से एक अभ्यन्तर वर्तिनी तथा दूसरी बाह्य निषद्या सूती कपड़े की होती है, आजकल दशी आदि के साथ डांड़ी रखी जाती है, वह आगम विधि के अनुसार या अकेली होती है, इस दशी युक्त कम्बलखण्ड के साथ दो निषद्याएँ मिलाने से रजोहरण बनता है। तात्पर्य यह है कि रजोहरण में डांड़ी पर बीटने का कम्बलखण्ड, जो विस्तार में तीन आंटे पाए उतना और लम्बाई में हाथ भर लम्बा होता है, उसके आगे दशियां रहती हैं, उसी ऊर्णा वस्त्रखण्ड को जिसके आगे दशियां संलग्न हैं, रजोहरण कहते हैं, इसको दो निषद्याओं में न समझना चाहिए, इसके ऊपर बीटा जाने वाला सूती वस्त्रखण्ड जो विस्तार में एक हाथ के लगभग होता है और लम्बाई में एक हाथ से कुछ अधिक, इसको वस्त्रमयी निषद्या कहते हैं, इसको अभ्यन्तर निषद्या समझना चाहिए। तीसरी इसी के ऊपर बीटी जाने वाली कम्बलमयी निषद्या होती है, जो एक हाथ चार अंगुल समचौरस होती है और तीसरी यह निषद्या आजकल बैठने के काम में ली जाती है, इसलिए यह “पादप्रोञ्छनक" इस नाम से प्रसिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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