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________________ १४ : निबन्ध-निचय "पायपुंछण" शब्द आया है वहां सर्वत्र “पाद्प्रौञ्छनकं-रजोहरणं' यह अर्थ किया है, कल्पसूत्र की सामाचारी में आने वाले इन दो शब्दों की भी यही व्याख्या की गई है । पाक्षिक सूत्र में आने वाले "क्षामणक पाठ" में भी हस्तलिखित प्रतियों में “पायपुंछणं वा, रयहरणं वा'' इस प्रकार का अब भी पाठ विद्यमान है, परन्तु साहित्य का प्रकाशन होने के बाद संशोधकसम्पादकों ने "रयहरणं" शब्द को निकालकर केवल "पायपुंछणं' शब्द रख छोड़ा है, यह एक प्रकार की महत्त्वपूर्ण भूल प्रचलित की है, कल्प टीकाकारों ने भी जहां कहीं पायपुंछरणं' शब्द आया वहां "रजोहरण' अर्थ लिख दिया, परन्तु यह नहीं सोचा कि भिक्षु, कहीं भी कार्य निमित्त बाहर जाता है, वहां अपनी "उपधि' वख, पात्र, पादप्रौञ्छन" आदि दूसरे श्रमण को सम्भालने के लिए सौंप कर जाता है, यदि “पादप्रौञ्छनरजोहरण होता तो साधु दूसरों को सौंप कर कैसे जाता ? क्योंकि "रजोहरण" तो प्रति साधु व्यक्ति के पास एक ही होता है, और वह प्रत्येक के पास रहता है, किसी को सौंपा नहीं जाता । इस सम्बन्ध में हमने जो निर्णय किया था कि “पादपोंछन” रजोहरण नहीं किन्तु उसके ऊपर बान्धे जाने वाले ऊनी वस्त्रखण्ड का नाम होना चाहिए, जो आजकल “निसिथिया' कहलाता है, इसका खरा नाम “निषद्या” है, जिसका अर्थ बैठने के समय बिछाने का आसन होता है, क्योंकि इसका प्रमाण भी शास्त्र में एक हाथ चार अंगुल का बताया है । पूर्वकाल में जब बिछाने के ऊनी आसन आजकल की तरह जुदा नहीं रखते थे, तब प्रसंग आने पर इस वस्त्रखण्ड को जुदा पाड़ कर पग पोंछे जाते थे और बैठने के प्रसंग पर जमीन पर बिछाया भी जाता था, परन्तु मध्यकालीन टीकाकारों ने इसके सम्बन्ध में कोई स्पष्टीकरण नहीं किया था, जैसा कि प्राचार्य वीरगणी ने अपनी शिष्यहिता टीका में किया है। साधुओं के उपकरणों का निरूपण करते हुए वे लिखते हैं : “पात्रस्य-भाजनस्य प्रत्यवतार:-परिकर:- “पत्तगबज्जोयत्ति' पात्रक वर्जक एव - पतद्गृहरहित एव पात्रनिर्योगः-पात्रकबन्धादिकं षड्विधं भाजनोपकरणं तथा द्वे-द्विसंख्ये निषद्य, पुना रजोहरण:-उपकरणविशेषरूपः-पुनः ज्ञेय इति शेषः अभितरत्ति अभितरा-मध्यवर्तिनी, तथा बाह्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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