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निवन्ध-निचय
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उपदेहिका आदि कीटों के खा जाने से, पढ़ने को ले जाने वाले व्यक्ति के पास रह जाने से, अथवा तो अन्य किसी कारण से पुस्तक का अमुक भाग खण्डित हो जाता है। ग्रन्थनिर्माता दो चार ग्रन्थों को एक साथ बनाना प्रारम्भ करता हो, तो उसका आयुष्य समाप्त होने पर वे सभी प्रारब्ध ग्रन्थ अपूर्ण रह सकते हैं, परन्तु विद्वान् ग्रन्थकारों की प्रायः ऐसी पद्धति नहीं होती, वे एक कृति के समाप्त होने पर ही दूसरी कृति का निर्माण प्रारम्भ करते हैं। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने सैंकड़ों ग्रन्थ बनाए थे. परन्तु आज अमुक ग्रन्थ ही उपलब्ध होते हैं, इसका भी कारण यही है कि अनुपलब्ध ग्रन्थों में से अधिकांश ग्रन्थ काल का ग्रास बन चुके हैं। प्राचार्य हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थों को बने तो सैकड़ों वर्ष हो चुके हैं, परन्तु स्वयं श्री वीरगरिण की शिष्यहिता टीका भी वर्षों पहले नष्टप्रायः हो चुकी है, आज उसका आदि तथा अन्त का थोड़ा-थोड़ा भाग शेष रहा है, यही दशा हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थों की हुई है।
टीका के उपोद्घात में श्री वीरगणिजी लिखते हैं : 'दशवकालिक श्रुतस्कन्ध पर श्री भद्रबाहु स्वामी ने नियुक्ति बनाई है, उसमें पिण्डैषणा नामक पंचम अध्ययन का ग्रन्थ अधिक होने से उसका "पिण्डनियुक्ति" यह नाम देकर शेष ग्रन्थ से इसे पृथक् किया, वास्तव में पिण्डनियुक्ति ही दशवैकालिक नियुक्ति है।
विद्वान् प्राचार्य वीरगरिण की प्रस्तुत शिष्यहिता टीका बड़े महत्त्व की कृति थी, परन्तु दुर्भाग्य-योग से आज वह नष्टप्रायः हो चुकी है, यह यदि सम्पूर्ण विद्यमान होती तो क्षमारत्नजी को अवचूरि और मारिणक्यशेखर को दीपिका लिखने का साहस ही पहीं होता, ऐसी वीरगरिण की शिष्यहिता विशद विवरण करने वाली टीका थी। इसके विशद विवरण के सम्बन्ध में हम एक उदाहरण उपस्थित करेंगे। सूत्रों में आने वाले "पायपुंछरण और रयहरण" नामक जैन श्रमरणों के दो उपकरणों के विवरण के सम्बन्ध में जैन टीकाकारों में बड़ा भ्रम फैला हुआ है, श्री अभयदेवसूरि जैसे टीकाकार "पायपुंछण" और "रयहरण' को एक दूसरे का पर्याय मानते थे, जहां
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