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________________ निबन्ध - निचय : ३२५ विरोधों का समन्वय करने की कोशिश की है । चतुर्थ पाद में निर्गुण ब्रह्म के बहिरंग साधनों की और आश्रमों की चर्चा कर उनकी श्रावश्यकता बताई है । चौथे अध्याय के चारों पदों में निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म की उपासना और उससे होने वाले स्वर्गीय तथा मुक्त्यात्मक फलों का प्रतिपादन किया है । मन्तव्य के विरुद्ध जो किया है । इस आचार्य की प्रतिपादन शैली प्रौढ़ है । अपने जो बातें और सिद्धान्त दीख पड़े उन सभी का खण्डन खण्डन में सब से अधिक कटाक्ष सांख्य दर्शन पर किये हैं, तब सबसे कम आर्हत, भागवत और पाशुपत सम्प्रदायों पर । अपना दर्शन निर्विरोध और व्यवस्थित बनाने के लिए पर्याप्त श्रम किया है । लगभग सभी उपनिषदों, आरण्यकों, ब्राह्मण ग्रन्थों को छान डाला है । उनमें प्रयुक्त पारस्परिक विरुद्ध सिद्धान्तों को एक मत बनाने के लिए पर्याप्त श्रम किया है, फिर भी इस प्रयास में वे अधिक सफल नहीं हो सके हैं । कई वाक्यों तथा शब्दों की व्याख्या करने में इन्होंने केवल अपनी कल्पना से काम लिया है । "वैदिक - निरुक्त, निघण्टु और लौकिक शब्दकोषों" की सहायता न होने और कल्पना मात्र के बल से शब्दों का अर्थ लगाकर किया गया समन्वय अथवा विरोधों का परिहार कहां तक सफल हो सकता है, इस बात पर पाठकगरण स्वयं विचार कर सकते हैं । प्राचार्य शंकर ने अपने भाष्य में अधिकांश नामोल्लेख प्राचीन वैदिक आचार्यों के ही किये हैं, फिर भी कुछ उल्लेख ऐसे भी आये हैं कि उल्लिखित व्यक्ति विक्रम की ७ शती के परवर्ती हैं । ग्रष्टम शताब्दी के "जैनाचार्य हरिभद्रसूरि भट्टाकलंक, कुन्दकुन्दाचार्य" आदि के ग्रन्थों में बौद्धों के विज्ञानवाद आदि का खण्डन प्रचुर मात्रा में मिलता है, परन्तु ग्राचार्य शंकर के ब्रह्मवाद का नामोल्लेख तक उन ग्रन्थों में नहीं पाया जाता । हाँ दशवीं तथा ग्यारहवीं शती के जैन दार्शनिक ग्रन्थों में ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन श्रवश्य मिलता है । इससे अनुमान किया जा सकता है कि शंकराचार्य का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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