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निबन्ध-निचय
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ग्रर्थात् -" तीन लोक का आकार प्रथम बताकर फिर राजवंशोत्पत्ति; उसके बाद हरिवंशोत्पत्ति, वसुदेव का भ्रमण, नेमिनाथ का चरित्र, द्वारिका नगरी का निर्माण, युद्ध का वर्णन और नेमिनाथ आदि का निर्वाण, ये आठ अर्थाधिकार इस पुराण में कहे जायेंगे । ७१ । ७२ ।'
लेखक ने सर्वप्रथम तीन लोकों का जो निरूपण किया है वह जैनशास्त्रोक्त है । शेष प्रर्थाधिकार राजवंशोत्पत्ति, हरिवंशोत्पत्ति, वसुदेव की प्रवृत्ति, नेमिनाथ का चरित्र, द्वारिका का बसाना, युद्ध का वर्णन और निर्वारण का वर्णन "च उपन्न महापुरिसवरिय" और "वसुदेव-हिण्डी" इन प्राचीन ग्रन्थों के ऊपर से लिये गये हैं ।
(२) प्रतिपादन शैली : : :
सम्पादकों ने आचार्य जिनसेन की इस कृति के सम्बन्ध में अपना अभिप्राय बहुत ही अच्छा व्यक्त किया है । परन्तु हमको इनके विचारों से जुदा पड़ना पड़ता है, यह दुःख का विषय है । पर इसका कोई प्रतिकार भी तो नहीं । सम्पादकों ने इनकी हर एक प्रवृत्ति और परिपाटी पर सन्तोष व्यक्त किया है, परन्तु मुझे इनकी प्रतिपादन शैली पर सन्तोष नहीं । जहां तक मुझे लेखक की लेखिनी का अनुभव हुआ है, इससे यही कहना पड़ता है कि आपकी लेखिनी परिमार्जित नहीं । पढ़ने पर यही लगता है कि आचार्य धार्मिक सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त व्याकरण पढ़ कर "हरिवंश" की रचना में लगे हैं, इसीलिये लेख में अलंकार और रसपोषण का कहीं दर्शन नहीं होता । युद्ध जैसे प्रसंग में भी "वीर" अथवा "अद्भुत रसों का नाम निशान नहीं होना - इसका अर्थ यही हो
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सकता है कि लेखक ने अपनी साहित्यिक योग्यता प्राप्त करने के पहले ही इस पुराण की रचना कर डाली है । इसीलिये कहीं कहीं तो लेख भ्रान्तिजनक भी हो गया है, जैसे
"युधिष्ठिरोऽर्जुनो ज्येष्ठो, भीमसेनो महाबलः ।
नकुलः सहदेवश्च पञ्च ते पाण्डुनन्दनाः ॥ ( २ ) " ( ४५ सर्ग)
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