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निबन्ध-निचय
एकादशी शती के तृतीय अथवा चतुर्थ चरण की मानी जा सकती है। सम्पादक वंशीधरजी शास्त्री के मत से विक्रम संवत् १०६० से १११५ तक का होना निश्चित है ।
प्रथम परिच्छेद में ग्रन्थकार ने सूक्ष्मा, अनुपश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी, इन चार भाषाओं का संक्षेप में स्वरूप बतलाया है ।
द्वितीय परिच्छेद के अन्त में लेखक ने केवलो-कवलाहार का खण्डन किया है और स्त्रीनिर्वाण का भी सविस्तार खण्डन किया है। साथ में सवस्त्र निर्ग्रन्थ नहीं हो सकता और नैर्ग्रन्थ्य विना मुक्ति नहीं हो सकती, इन दो विषयों के सम्बन्ध में लिखी गई युक्तियों में ऐसी कोई भी युक्ति या तर्क दृष्टिगोचर नहीं होता, जो इनकी मान्यता को सिद्ध कर सके ।
तृतीय परिच्छेद में बौद्धों के अपोह-सिद्धान्त का भी खण्डन किया है । शब्दाद्वैतवादियों के स्फोट के सम्बन्ध में प्रतिपादन तथा लौकिक वैदिक शब्दों के अर्थ के सम्बन्ध में जैनों का मन्तव्य प्रतिपादित किया है।
__ अन्तिम प्रशस्ति में ग्रन्थकार प्रभाचन्द्र ने माणिक्यनन्दी को गुरु के रूप में याद किया है और अपने को पद्मनन्दि सैद्धान्तिक का शिष्य और श्री रत्ननन्दि का पदस्थित बताया है। धाराधीश भोजराज के राज्यकाल में माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख सूत्रों पर यह विवरण समाप्त करने का ग्रन्थकार ने सूचन किया है।
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