________________
२७८ :
निबन्ध-निचय
और न प्राकृत । इसमें शौरसेनी का एक ही लक्षण मजबूत पकड़े रखा है कि "त" को "द" बनाना । मागधी का लक्षण एक ही पकड़ा है कि ती के "त" को "ई" बनाना। बाकी प्राकृत प्रयोग भी अधिकांश अलाक्षणिक ही हैं, जैसे-"खुद्दाबन्ध, नामागोद, नीचागोद, रहस्स, संघडण" इत्यादि सैकड़ों ऐसे अलाक्षणिक शब्द हैं जो प्राकृत व्याकरण से सिद्ध नहीं हो सकते। इन अलाक्षणिक शब्दों को लाक्षणिक बनाने की इच्छा “प्राकृत शब्दानुशासनकार-श्री त्रिविक्रमदेव" को हुई थी और प्रारम्भ में उन्होंने लिखा भी था कि "वीरसेन आदि प्रयुक्त शब्दों को सिद्ध करने की भी मेरी इच्छा है।" पर बाद में शब्दानुशासन की समाप्ति तक देखो तो वीरसेन अथवा उनके द्वारा प्रयोग में लाए गए प्राकृत शब्दों की सिद्धि कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई। मालूम होता है कि त्रिविक्रम देव को भट्टारकजी के अलाक्षणिक शब्दों को लाक्षणिक बनाने का कार्य असम्भव प्रतीत हुआ होगा। इसी से उन्होंने अपने व्याकरण में कहीं उल्लेख तक नहीं किया।
भट्टारकजी अपनी भाषा की अलाक्षणिकता जानते थे, इसी से इन्होंने एक स्थान पर प्राकृतव्याकरण के नाम से अर्धपद्य के रूप में एक बॉम फेंका कि "प्राकृत में ए, ऐ आदि सन्ध्यक्षरों के स्थान में आ, ई आदि अक्षर परस्पर एक दूसरे के स्थान में हो जाते हैं।"
आपकी होशियारी का पार ही नहीं आता, स्थान-स्थान पर "केवि पायरिया, आयरियोवदेसेरण, महावाचक-खमासमणा" आदि साक्षी के रूप में तुक्का धर देते हैं, पर नाम न देने की तो प्रतिज्ञा ही कर रखी है। हम तो इसका अर्थ यही समझते हैं कि भट्टारकजी के पास एकाध गणित का कोई अच्छा ग्रन्थ होगा और एक दो भंग-प्रस्तारों के कर्म-सम्बन्धी ग्रन्थ, उनके आधारों से यह टीका ग्रन्थ-जिसे टीका न कहकर "महाभाष्य" कहना चाहिये, बना हुआ है। कुछ भी हो, परन्तु दिगम्बर जैन परम्परा के लिये तो वीरसेन एक वरददेव हैं, जिन्होंने “कर्म-सिद्धान्त-विषयकधवला तथा जयधवला" दो टीकाएँ बनाकर दिगम्बर जैन समाज को उन्नतमस्तक कर दिया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org