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निबन्ध-निचय
षट् खण्डागम के माने गये सूत्र किसी अंश में सूत्र कहे जा सकते हैं, तब कहीं-कहीं सूत्र चूरिंग का रूप भी धारण कर लेते हैं । यह मूल ग्रन्थ का दुरंगा रूप स्वाभाविक नहीं पर कृत्रिम है । हमारी समझ के अनुसार वास्तव में यह चूर्णी होनी चाहिए, परन्तु बाद में किसी ने चूर्णी का अंगभंग कर सूत्र बना दिए हैं । यह परिवर्तन किसने किया यह कहना तो कठिन है, परन्तु चौथे पाँचवें खण्डों में कहीं-कहीं सूत्रों के रूप में गाथाएँ दी गई हैं और उन पर चूरिंग न होकर वीरसेन की सीधी धवला टीका बनी है |
कषाय पाहुड़ की गाथाओं के कर्त्ता का नाम "गुणधर" लिखा है और उसकी चूरिंग के कर्त्ता का नाम "यतिवृषभ" । हमारी राय में ये दोनों नाम भट्टारकजी की कृति है । असत् को सत् बनाने में भट्टारक वीरसेन एक सिद्धहस्त कलाकार मालूम होते हैं । " जयधवला " वाली चूरिंग के प्रारम्भ में दो मंगलाचरण की गाथाएँ दी हैं, उनमें “यतिवृषभ" नाम श्राता है, जिसे “यतिवृषभ" नामक श्राचार्य मानकर चरिण को उनके नाम पर चढ़ा दिया है । यही चूरिण टीका के बिना छपी है । उसमें न मंगल गाथाएँ हैं, न "यतिवृषभ' का उल्लेख है । इससे प्रमाणित होता है कि " जयधवला वाली चूर्णी' में वीरसेन ने अपना परिचय मात्र दिया है ।
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अपनी टीका में स्थान-स्थान पर 'जईव सहायरिप्रो" उल्लेख कर भट्टारकजी ने यति वृषभाचार्य को मूर्तिमन्त बना दिया है। इसी प्रकार कषायपाहुड़ की गाथाओं में कहीं भी कर्ता का नाम निर्देश नहीं है, तथापि वीरसेन ने अपनी टीका में " गुणहर भडारनो" इत्यादि स्थान-स्थान पर निर्देशों द्वारा "गुणधर भट्टारक" को भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति बना दिया है ।
षट् खण्डागम के चरण सूत्र, कषाय पाहुड के चूरिंग सूत्र और इन दोनों पर की वीरसेन की टीकाओं की प्राकृत भाषा एक है । फरक इतना ही है कि टीकाओं में कहीं-कहीं संस्कृत पद अथवा वाक्य दिए गए हैं; तब चूरियों में यह बात नहीं है । प्राकृत भाषा न पूरो शौरसेनी है, न मागधी
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