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: २८ : धवला की प्रशस्ति
"सिद्धंत-छंद-जोइस-वायरण-पमारणसत्थरिणवुरण । भट्टारएण टीका, लिहिएसा वीरसेरणेण ॥५॥ अट्ठत्तीसम्हि सासियविक्कमरायम्हि एयाइ संरंभो । पोसे सुतेरसीए, भावविलग्गे धवलपक्खे ॥६॥ जगतुंगदेवरज्जे, रि(हि)यम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए संते, गुरुम्हि कुलविल्लए होंते ॥७॥ चावम्हि वर (धर) रिणवुत्ते, सिंघे सुक्कम्मि मेंढि चंदम्मि । कत्तियमासे एसा, टीका हु समापिया धवला ॥८॥ वोद्दण रायणरिंदे, परिंदचूडामणिम्हि भुंजते । सिद्धतगंधमत्थिय-गुरुप्पसाएण विगत्ता सा ॥६॥"
भट्टारकजी ने प्रशस्ति की ५ से ६ तक की ५ गाथाओं से यह धवला टीका कब लिखी यह बात सूचित की है। परन्तु निर्माण के समय के सूचक "अट्ठत्तीसम्हि" इन दो शब्दों के अतिरिक्त कोई शब्द नहीं है । "सासिय” अथवा “सामियविक्कमरायम्हि" इन शब्दों से भी कोई स्पष्टार्थ नहीं होता। शासक अथवा स्वामी विक्रम राज्य के समय क्या हुआ ? इसका कोई फलितार्थ नहीं मिलता। "अट्ठत्तीसम्हि" से विक्रम का सम्बंध नहीं मिलता, क्योंकि दोनों सप्तम्यन्त हैं । इसके अतिरिक्त "जगतुंगदेवरज्जे" और अन्त में "वोद्दण रायरिंदे, परिद चूडामणिम्हि भुंजते" इस प्रकार दो राजाओं के सप्तम्यन्त नाम लिखे हैं। "विक्रमराज, जगत्तुङ्गदेव और बोद्दणराजनरेन्द्र' इन तीन राजाओं का सम्मेलन करके भट्टारकी क्या कहना चाहते हैं, इसका तात्पर्य समझ में नहीं आता। प्रशस्ति की गाथाओं
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