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निबाध-निचय
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ज्योतिष शास्त्र का वेत्ता भी बताया है। इतना ही नहीं, इस महती टीका में आपने छोटे से छोटे अनुयोग द्वार तथा प्रकरण के प्रारम्भ में "वण्णइस्सामो, कस्सामो' आदि बहुवचनान्त क्रियाओं का प्रयोग करके अपने महत्त्व का परिचय दिया है। मालूम होता है, टीकात्रों का पुनरुक्तियों द्वारा दुगुना तिगुना कलेवर बढ़ाने में भी उनका महत्त्वाकांक्षीपन ही काम कर गया है, अन्यथा धवला जयधवला टीकायों में जो कुछ लिखा है, वह एक चतुर्थांश परिमारण वाले ग्रन्थ में भी लिखा जा सकता था। इसका आपने कई स्थानों पर बचाव भी किया है कि हमने अतिमुग्ध-बुद्धिशिष्यों के बोधार्थ यह पुनरुक्ति की है। हमारी राय में यह बचाव एक बहाना है। एक वस्तु को घुमा-घुमाकर लिखने से तो मुग्ध-बुद्धि मनुष्य उल्टे चक्कर में पड़ते हैं । खरी बात तो यह है कि भट्टारकजी को इन ग्रन्थों का कलेवर बढ़ाकर इस तरफ अपने अनुयायियों का मन आकृष्ट करना था और इस कार्य में आप पूर्णतया सफल भी हुए हैं।
टीका की प्रशस्ति में आपने अपने इस निर्माण का समय सूचित करने में भी जाने-अजाने गोलमाल किया है।
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